Book Title: Jain Tattva Sara
Author(s): Kanhiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 258
________________ चिन्ता, द्वन्द्व, इष्ट नहीं है। यह ज्ञान सभी को स्वभाव से है। यह ज्ञान स्वाभाविक होने से स्वभाव है, स्वभाव होने से इसकी पूर्ति होना अर्थात् अनुभव होना ही साध्य की उपलब्धि एवं सिद्धि प्राप्त करना है। यही सिद्धि सिद्धों का स्वरूप व गुण है। यह श्रुत ज्ञान है। किसी की देन नहीं होने से अपौरुषेय, अद्वितीय, अनुपम है। इस प्रकार स्वभाव, स्वभाव का ज्ञान, श्रुतज्ञान, साध्य, सिद्धि व सिद्धों का स्वरूप, इनमें जातीय एकता है। एक ही वस्तु के विभिन्न रूप या आयाम है। इस ज्ञान में किसी भी जीव को विकल्प व तर्क नहीं होने से यह ज्ञान सर्वमान्य है, सार्वजनीन है, सर्वकाल में विद्यमान होने से सनातन है, शाश्वत है, सत्य है। इसका अनुभव करना ही सत्य का, अविनाशी तत्त्व का, मुक्ति का अनुभव करना है। मुक्ति : देहातीत होना ____ मुक्ति प्राप्ति है देह में रहते हुए देह से सम्बन्ध-विच्छेद होना। देहाभिमान रहित होते ही स्वतः निर्वासना आ जाती है। वासना रहित होते ही मन में निर्विकल्पता, बुद्धि में समता, हृदय में निर्भयता और चित्त में प्रसन्नता स्वतः आजाती है। मन की निर्विकल्पता तथा बुद्धि की समता सब प्रकार के द्वन्द्वों का अन्त करने में समर्थ है। द्वन्द्वों का अन्त होते ही निस्संदेहता तथा प्रेम की प्राप्ति होती है। निस्संदेहता से तत्त्वबोध और प्रेम से नित नूतन-अनन्त सुख की उपलब्धि होती है। अपने को देह मान लेने से देह से तादात्म्य हो जाता है, देहाभिमान हो जाता है। देहाभिमान होने पर वस्तु, व्यक्ति, अवस्था से सम्बन्ध स्थापित हो जाता है और प्राणी इनकी दासता में आबद्ध हो जाता है। वस्तुओं की दासता लोभ, व्यक्तियों की दासता मोह, अवस्था की दासता जड़ता उत्पन्न करती है। लोभ, मोह तथा जड़ता में आबद्ध प्राणी परिस्थितियों का दास हो जाता है। तात्पर्य यह है कि अपने को देह मान लेने अथवा देह को अपना मान लेने से परिस्थितियों की दासता उत्पन्न होती है जो देहभाव को, देह से तद्रूपता को पुष्ट करती है। यदि देह की नश्वरता, अशुचित्व आदि की वास्तविकता को जानकर देहभाव का त्याग कर दिया जाय तो हमारा माना हुआ 'मैं' तथा 'मेरापन' मिट जाता है। जिसके मिटते ही अपने से भिन्न पदार्थों से माने हुए मैं, मेरेपन तथा तादात्म्य रूप सम्बन्धों का सदा के लिए विच्छेद हो जाता है, तदनन्तर शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि सभी से अपनी भिन्नता का अनुभव हो जाता है। फिर विषय-वासना, कषाय व मोह का सदा के लिए अन्त (क्षय) हो जाता है और साधक अपने सच्चिदानन्द स्वरूप में स्थित हो जाता है। मोक्ष तत्त्व [237]

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