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सविपाक निर्जरा में कर्म-क्षय और कर्म-बंध का चक्र निरन्तर चलता रहता है और प्राणी कभी भी बंधन मुक्त नहीं होता है। जिस प्रकार गेहूँ का बीज पौधा बनकर फल देने के पश्चात् स्वयं नष्ट हो जाता है, परन्तु अपने जैसे अनेक नये बीज पैदा कर जाता है। इस प्रकार वह बीज संतति रूप में सतत विद्यमान रहता है। इसी प्रकार सविपाक निर्जरा रूप प्राकृतिक प्रक्रिया में कर्मो का 'आत्यन्तिक क्षय' अनन्तभव व अनन्तकाल में भी संभव नहीं है। कारण कि यदि भोगने से ही कर्मों का सर्वथा नाश संभव होता तो अनन्त जीव, अनन्त काल से अनंत भवों में कर्मो का फल भोगते आ रहे हैं, उनमें से किसी एक जीव के तो कर्मों का नाश हुआ होता। अतः निर्जरा की प्राकृतिक प्रक्रिया सविपाक निर्जरा मुक्ति दिलाने में समर्थ एवं सहायक नहीं है।
अविपाक निर्जरा :- कर्मक्षय की वह प्रक्रिया, जिससे प्राणी पूर्वसंचित कर्मों को बिना फल भोगे, परिपाक काल से पूर्व ही विनष्ट कर देता है, अविपाक निर्जरा कही गई है। अविपाक निर्जरा ही साधना का अंग है। अविपाक निर्जरा को 'तप' भी कहा जाता है। तपसा निर्जरा च' (तत्वार्थ सूत्र, अध्ययन ९ सूत्र ३) सूत्र के अनुसार तप में संवर तो रहता ही है और तप से निर्जरा भी होती है अर्थात् तप संवर से भी ऊपर की साधना है।
जिस प्रकार ताप से बीज भस्म हो जाता है या भस्म नहीं होता तब भी ताप से उसकी सरसता नष्ट हो जाती है जिससे वह निष्प्राण हो जाता है और फल देने में असमर्थ हो जाता है; इसी प्रकार तप से कर्म क्षीण या निष्प्राण हो जाते हैं। उनमें फल देने का सामर्थ्य नहीं रहता है। जिस प्रकार बीज मे फल देने की शक्ति उसकी सरसता में है, सरसता का अंत होते ही वह निष्प्राण हो जाता है, इसी प्रकार कर्मों में फल देने की शक्ति उनकी ‘सरसता' (सुखासक्ति) अर्थात् कषाय में है। कषाय के क्षीण होते ही 'रस बंध' नष्ट हो जाता है। रस बंध' के नष्ट होते ही स्थिति बंध' नष्ट हो जाता है। इन दोनों बंधों के नाश होते ही 'प्रकृति' व 'प्रदेश' बंध का नाश हो जाता है कारण कि प्रकृति बंध को सजीव रखने वाला रसबंध है एवं प्रदेश बंध को टिकाने वाला स्थिति बंध है। इन चारों प्रकार के कर्म बंधों के क्षय होते ही कर्म खिर
निर्जरा तत्त्व
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