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जैसे-जैसे विषय - सुखों के भोग-उपभोग की दासता, राग- - द्वेष, मोह क्षीण होता जाता है वैसे-वैसे भोगान्तराय-उपभोगान्तराय आदि अन्तराय कर्म क्षीण होते जाते हैं और आंतरिक व आत्मिक सद्गुणों की एवं निज स्वरूप के भोग - उपभोग के सुख की अधिकाधिक अभिवृद्धि होती जाती है। पूर्ण वीतराग अवस्था में ये गुण असीम व अनन्त हो जाते हैं ।
इस प्रकार ध्यान-साधना से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय व अन्तराय कर्म क्षीण होते हैं । इन चारों का परस्पर इतना घनिष्ठ संबंध है कि इनमें किसी एक कर्म के क्षीण होने का प्रभाव शेष तीन कर्मों पर भी पड़ता है और उनमें भी क्षीणता आती है।
उपर्युक्त चार घाती कर्मों के अतिरिक्त नाम, गोत्र, आयु, वेदनीय ये चार अघाती कर्म और हैं। ये कर्म शरीर, इन्द्रिय आदि भौतिक या बाहरी पदार्थों से संबंधित हैं। यह नियम है कि भीतरी स्थिति के अनुरूप ही बाहरी स्थितियों एवं परिस्थितियों का निर्माण होता है या यों कहें कि चेतना की सूक्ष्म शक्तियों व गुणों
न्यूनाधिकता के अनुरूप ही प्रकृति भौतिक पदार्थों, शरीर, इन्द्रिय आदि की संरचना करती है यही नाम कर्म है। नाम कर्म से उत्पन्न शरीर के टिकने की अवधि आयुकर्म है। उच्च-नीच अर्थात् दीनता व अभिमान (मद) का भाव होना गोत्र कर्म है और शरीर व चित्त आदि के माध्यम से होने वाली सुखद - दुःखद संवेदनाएँ वेदनीय कर्म है। इन चारों अघाती कर्मों की पाप प्रकृतियों की उत्पत्ति का कारण भी राग, द्वेष, मोह आदि दोष ही हैं। ये दोष जैसे-जैसे घटते व हटते जाते हैं, आत्मशुद्धि बढ़ती जाती है। पाप प्रकृतियों का बंध रुकता जाता है ।
ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय इन चार घाती कर्मों के क्षय होने के पश्चात् वेदनीय कर्म, नाम कर्म, गोत्र कर्म और आयु कर्म ये चारों अघाती कर्म शेष रह जाते हैं । ये कर्म अघाती होने से जीव के किसी गुण का घात करने में समर्थ नहीं हैं । अतः इनका क्षय करने की आवश्यकता नहीं है । फिर भी इन कर्मों की शुभ-अशुभ, प्रशस्त अप्रशस्त प्रकृतियाँ हैं जिन्हें पुण्य-पाप प्रकृतियाँ कहा जाता है। इनमें से पुण्य - प्रकृतियों का क्षय किसी भी साधना से सम्भव नहीं है, अपितु साधना से इन पुण्य - प्रकृतियों का अर्जन होता है एवं इनके अनुभाग में वृद्धि होती है। अतः इनके क्षय की आवश्यकता भी नहीं है । शेष रही इनकी अशुभअप्रशस्त पाप प्रकृतियाँ । पाप प्रवृत्तियों के बंध का अवरोध कषाय की क्षीणता व क्षय से होता है।
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निर्जरा तत्त्व
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