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तत्त्वार्थ सूत्र, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, पंचसंग्रह आदि ग्रन्थों में गुणश्रेणि का निरूपण करते हुए इस तथ्य को स्पष्ट किया गया है। उदाहारणार्थ देवेन्द्र सूरि विरचित पंचम कर्मग्रन्थ की निम्नांकित गाथाएं उल्लेखनीय हैं
सम्मदरसव्वविरई अणविसंजोयदंसखवगे य। मोहसमसंतखवगे खीणसजोगियर गुणसेढी।। गुणसेढी दलरयणाणुसमयमुदयासंखगुणणाए एयगुणा पुण कमसो असंखगुणनिजरा जीवा।।
-पंचम कर्मग्रन्थ, ८२ एवं ८३ अर्थात् सम्यक्तव, देशविरति, सर्वविरति, अनंतानुबंधी का विसंयोजन, दर्शन मोहनीय का क्षपक, चारित्र मोहनीय का उपशमक उपशान्त मोह, क्षपक क्षीणमोह, सयोगी केवली और अयोगी केवली ये ग्यारह गुण श्रेणियों के स्थान हैं। कर्म के उदय समय से लेकर प्रति समय असंख्यातगुणे-असंख्यातगुणे कर्म दलिकों की रचना के गुणश्रेणी कहते हैं । सम्यक्त्व, देशविरति, सर्वविरति आदि गुण वाले जीव क्रमशः असंख्यात गुणी निर्जरा करते हैं।
सर्वप्रथम सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के समय स्थितिघात एवं रसघात होता है, फिर गुणश्रेणि के अनन्तर असंख्यात गुणी कर्म-निर्जरा होती है। इस निर्जरा में कर्मों के प्रदेशोदय का अनुभव किया जाता है। सम्यक्त्व के प्राप्तिकाल में एक मुहूर्त तक जीव प्रतिसमय असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा करता है। इसके अनन्तर जीव जब देशविरति का पालन करता है अर्थात् अणुव्रती बनता है तब वह दूसरी गुणश्रेणि करता है। इसमें पूर्वापेक्षया असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा होती है। इसी प्रकार अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया व लोभ का विसंयोजन करता है तब भी असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा होती है। दर्शन मोहनीय की तीनों प्रकृतियों (मिथ्यात्व मोह, सम्यक्त्व मोह, मिश्र मोह) के विनाश को दर्शन मोहनीय का क्षपक कहा जाता है, यह पाँचवी गुण श्रेणि है। आठवें, नवमें और दसवें गुणस्थान में चारित्र मोहनीय का उपशम करते समय छठी गुणश्रेणि होती है। उपशान्त मोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान में सातवीं गुणश्रेणि होती है। क्षपकश्रेणि में चारित्र मोहनीय का क्षपण करते समय आठवीं गुणश्रेणि होती है। क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान में नवमी गुणश्रेणि होती है। सयोगी केवली नामक तेरहवें गुणस्थान मे दसवीं और अयोगी केवली नामक चौदहवें गुणस्थान में ग्याहवीं गुणश्रेणि होती है। इन सभी
निर्जरा तत्त्व
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