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जायरूवं जहा महें, निद्धतमलपावगं। रागदोसभयातीतं, तं वयं बूम माहणं॥
- उत्तराध्ययन सूत्र, 25.21 अर्थात् अग्नि में तपा हुआ और कसौटी पर कसा हुआ सुवर्ण गुणयुक्त होता है, उसी प्रकार राग, द्वेष और भय से अतीत पुरुष को हम ब्राह्मण कहते हैं।
उत्तराध्ययन सूत्र की इस गाथा में तथा इसके आगे की गाथाओं में सूत्रकार ने ब्राह्मण का सच्चा स्वरूप दर्शाया है। गोत्रकर्म और अगुरुलघुगुण
तन, धन आदि का अहंकार या अहंभाव प्राणी को भोगी व स्वार्थी बनाता है। भोग से पशु प्रकृति एवं स्वार्थपरता से आसुरी, नारकीय प्रकृति पुष्ट होती है। ये दोनों प्रकृतियां नीच गोत्र की द्योतक हैं। दूसरे शब्दों में यूँ कह सकते हैं कि अहंभाव से नीच गोत्र का बंध होता है। इसके विपरीत निरभिमानता तथा विनम्रता व्यक्ति को त्यागी तथा सेवाभावी बनाती है, जिससे मानवी व देवी प्रकृतियाँ पुष्ट होती हैं। मानवी प्रकृति तथा देवी प्रकृति उच्च गोत्र की द्योतक है। अतः निरभिमानता से उच्च गोत्र का बंध होता है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि मद या अभिमान नीच गोत्र का एवं निरभिमानता, मृदुता आदि उच्च गोत्र के बंध-हेतु हैं। अभिमान सदैव अर्जित धन, विद्या, बल, योग्यता आदि का होता है। अर्जित सामग्री अनित्य या विनाशी होती है। उसका वियोग अवश्यंभावी है। जो सदा साथ न दे वह 'पर' है। पर के संग्रह के आधार पर अपना मूल्यांकन कर गर्व करना, उससे अपना गौरव मानना प्रथम तो पर को मूल्य व महत्त्व प्रदान करना है साथ ही स्वयं का मूल्य घटाना व खोना है। अपने को दरिद्र व हीन बनाना है। द्वितीय, कोई कितना भी अर्जित करे, जगत् में उससे असंख्यात गुना अनर्जित पड़ा रहता है। जिसका उसके जीवन में अभाव है, कमी है, उससे वह हीन है। अतः पर के संग्रह या अर्जन के आधार पर गर्व करने वाले, गौरवशाली समझने वाले अभिमानी व्यक्ति को हीनता-लघुता (छोटेपन) का अनुभव होता ही है, यह प्राकृतिक विधान है। अपने में हीनता या लघुता का अनुभव होना ही नीच गोत्र है।
इसके विपरीत जो निरभिमानी है वह तन, धन, जन, बल, विद्या, बुद्धि आदि पर एवं विनाशी की प्राप्ति-अप्राप्ति के आधार पर अपना मूल्यांकन नहीं करता है,
बंध तत्त्व
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