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वस्तुओं की प्राप्ति हो तो यथाख्यान चारित्रवान् साधक के इनकी विषय-भोग दोष है, फिर उसकी पूर्ति में सहायक सामग्री की उपलब्धि को अन्तराय कर्म के क्षयोपशम से मानना भूल है ।
दानान्तराय आदि पाँच अन्तरायों में जितने अंशों में कमी होती जाती है उतने ही अंशों में उदारता, निर्लोभता, ऋजुता, निर्विकारता, निर्दोषता, माधुर्य एवं सामर्थ्य की प्रप्ति होती जाती है ।
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय - इन चारों घाती कर्मों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। इनमें से किसी भी एक कर्म का क्षयोपशम, उदय और बंध होते ही शेष तीनों घाती कर्मों का क्षयोपशम, बंध और उदय प्रायः स्वतः होता है। इन चोरों कर्मों में प्रमुख मोहनीय कर्म है। उसके कारण ही अन्त तीन कर्मों को क्षयोपशम होता है तथा मोह का क्षय होने पर शेष तीन घाती कर्मों का भी क्षय हो जाता है । जितनी राग- द्वेष - मोह में कमी होती है उतने ही विकल्प घटते हैं । विकल्पों के घटने से निर्विकल्पता आती है, जो दर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होती है। विकल्पों के घटने से चित्त शान्त होता है, शान्त चित्त में विचार का उदय होता है, ज्ञान का प्रकाश प्रकट होता है आर्थात् ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होता है । मोह- द्वेष के घटने से वस्तुओं को पाने की कामना तथा भोग करने की इच्छा कम होती है। इच्छाएं जितनी कम होती हैं, उतना ही अभाव का अनुभव कम होता है । अभाव का कम अनुभव होना अन्तराय कर्म का क्षयोपशम है ।
राग
बंधतत्त्व के विवेचन के निमित्त से जैन कर्म सिद्धान्त की अनेक मान्यताओं का इस पुस्तक मे पुनरीक्षण हो गया है । कर्म - सिद्धान्त विषयक कई भ्रान्तियाँ निराकृत हुई हैं तथा कर्म - प्रकृतियों के नूतन अर्थ प्रस्फुटित हुए हैं। इन अर्थों में श्रद्धेय लोढ़ा साहब की साधना एवं विचारशीलता की स्पष्ट छाप दृग्गोचर होती है। आशा है पाठक इससे लाभान्वित होंगे तथा विद्वज्जगत् में भी यह पुस्तक अनेक नवीन स्थापनाओं को जन्म देने में सक्षम बनेगी एवं विद्वान् प्रचलित असंगत अर्थों का निराकरण अनुभव कर विचार के क्षेत्र में एक कदम आगे रख सकेंगे । यह पुस्तक जैन दर्शन के कर्म - सिद्धान्त विषयक विवेचन के क्षेत्र में एक नवीन चरण - निक्षेप है जिसका आश है विद्वज्जन स्वागत करेंगे।
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जैनतत्त्व सार