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मोक्ष तत्त्व
मोक्ष का स्वरूप एवं महत्त्व जैन धर्म में मानव-भव की सार्थकता व सफलता ‘मोक्ष प्राप्त करना' कहा है। मोक्ष का अर्थ है दुःखों व दोषों से सर्वथा मुक्त होना। मोक्ष का मार्ग बताया है सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को यथा- सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः। सम्यग्दर्शन के अभाव में सम्यग्ज्ञान-चारित्र नहीं होते हैं। सम्यक् दर्शन का आधार भेद-विज्ञान है, भेद-विज्ञान का अर्थ है अपने आत्म-स्वरूप को शरीर-संसार आदि से भिन्न समझना और देह से आत्म-स्वरूप के भिन्नत्व का अनुभव करना। देह से आत्म-स्वरूप के भिन्नत्व का अनुभव होना ही कायोत्सर्ग है। इसीलिए जैनधर्म की साधना-पद्धति में कायोत्सर्ग को साधना का चरमोत्कर्ष कहा है। जैनधर्म में सम्यग्दर्शन के अभाव में सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र नहीं माना है। जिस ज्ञान व चारित्र का लक्ष्य भेद-विज्ञान अर्थात् देह और आत्मा को भिन्न अनुभव करना है वह ज्ञान व चारित्र साधना के अन्तर्गत आता है।
मानव मात्र का लक्ष्य शान्ति, मुक्ति (स्वाधीनता), प्रीति (प्रसन्नता), अमरत्व एवं दुःखरहित स्थायी-शाश्वत सुख प्राप्त करना है। इस लक्ष्य की पूर्ति किसी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदि से सम्भव नहीं है। कारण कि इनके साथ अशान्ति, पराधीनतापराश्रय, नीरसता, विनाश, वियोग आदि के दुःख लगे ही रहते हैं, जो किसी भी मानव को स्वभाव से ही इष्ट नहीं है। लक्ष्य उसे कहते हैं जिसकी पूर्ति सम्भव हो। लक्ष्य की पूर्ति में ही मानव-जीवन की सार्थकता एवं सफलता है। इसलिए लक्ष्य की पूर्ति अनिवार्य है।
मोक्ष तत्त्व
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