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अर्थात् मस्तक मुंडाने से कोई श्रमण नहीं होता है, ओंकार का उच्चारण करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता है, वन में निवास करने से कोई मुनि नहीं हो जाता है, एवं कुश से बने चीवर (वस्त्र) के धारण करने से कोई तापस नहीं हो जाता है ॥31॥
अपितु समता भाव धारण करने से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य का पालन करने से ब्राह्मण होता है, ज्ञान से मुनि होता है और तप करने से तपस्वी होता है ॥32॥
तथा कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय होता है, कर्म से वैश्य होता है और कर्म से शूद्र होता है, किसी वंश में जन्म लेने मात्र से नहीं ॥33॥
आशय यह है कि गुणों से एवं सदाचरण से ही व्यक्ति जातिवान्, कुलवान्, बलवान्, रूपवान् एवं ऐश्वर्य संपन्न होता है । बाह्य वेशभूषा एवं पदार्थों की प्राप्ति से नहीं होता है। उच्च आचरण वाला उच्च गोत्रीय और अधम आचरण वाला नीच गोत्रीय होता है।
गोत्रकर्म जातिगत नहीं
श्रमणसंघ के आचार्य श्री देवेन्द्रमुनि जी ने उच्च आचरण वाले को उच्च गोत्रीय और अधम आचरण करने वाले को नीच गोत्रीय कहा है, यथा- "सदाचारियों या कदाचारियों की परम्परा में जन्म लेने, वैसा वातावरण मिलने अथवा स्वीकार करने का कारणभूत कर्म गोत्र कर्म है। जैन कर्मविज्ञान ज्ञातिकृत (कौम या वर्णकृत या आजीविकाकृत) उच्च नीच भेद को नहीं मानता। ये भेद गुणकृत या आचरणकृत माने जाते हैं। जो अच्छे आचार-विचार एवं संस्कार वाले कुल या वंश की परम्परा में जन्म लेते हैं, शिष्ट आचार-विचार को धर्मयुक्त सुसंस्कृति का स्वीकार करके चलते हैं, ऐसे मनुष्यों की संगति को जीवन का उच्चतम कर्त्तव्य समझते हैं और जीवन के संशोधन एवं सुसंस्करण में सहायक आचार-विचार का स्वीकार एवं क्रियान्वयन करते हैं, वे उच्चगोत्री कहलाते हैं और जो इसके विरुद्ध आचार वाले होते हैं वे नीच गोत्री हो जाते हैं। नीच गोत्री अपने जीवन में अशुभ आचार-विचारसंस्कार का त्याग करके उच्च गोली हो सकते हैं । ऐसे व्यक्ति गृहस्थ श्रावक धर्म तथा मुनिधर्म के पालन के अधिकारी हो जाते हैं । "
• कर्म विज्ञान, भाग 2, पृ. 348
उच्च-नीच गोत्र कर्म के इसी तथ्य का प्रतिपादन करते हुए दिवाकर मुनि श्री चौथमल जी महाराज 'निर्ग्रन्थ- - प्रवचन भाष्य' में फरमाते हैं
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जैनतत्त्व सार