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संवेदन रूप से ग्रहण करने एवं उन्हें जानने की क्षमता प्राप्त करता है । उस क्षमता की अभिव्यक्ति पाँच इन्द्रियों के क्रमिक विकास से प्रकट होती है ।
नामकर्म की ९३ प्रकृतियों में कुछ के लक्षण लोढ़ा सा ने एकदम नये दिए हैं, उनका उल्लेख यहाँ अभिप्रेत हैं
अगुरुलघु - शरीर में संतुलन रखने वाली थायराइड, एड्रीनल आदि अन्तःस्रावी ग्रन्थियों को अगुरुलघु नामकर्म कह सकते हैं । निर्माण - शरीर में जब कही हड्डी टूट जाती है तो उसे पुनः जोड़ने, निर्माण करने का कार्य निर्माण प्रकृति करती है ।
उपघात-अपने ही अंग द्वारा अपने शरीर को हानि पहुँचाना। आहार करने से शरीर बनने पर उसमें विजातीय पदार्थ उत्पन्न होना उपघात नामकर्म है । पराघातशरीर की प्रतिरक्षात्मक शक्ति पराघात नाम कर्म है।
अशुभता आपेक्षिक होती है। एकान्तरूप से किसी वर्ण को शुभ एवं अशुभ नहीं कहा जा सकता है । जो वर्ण किसी के लिए किसी समय शुभ होता है वही दूसरे के लिए अथवा अन्य समय में उसी के लिए अशुभ माना जाता है।
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गोत्र कर्म का सम्बन्ध जन्म से प्राप्त गोत्र से नहीं और न ही उच्च एवं नीच कुल में जन्म लेने से है । वस्तुतः सदाचरण ही उच्च गोत्र का एवं दुराचरण ही नीच गोत्र का द्योतक है । सामान्यतया उत्तमकुल में जन्म लेना उच्च गोत्र एवं लोकनिंद्य कुल में जन्म लेना नीच गोच माना जाता है, किन्तु उत्तराध्ययन सूत्र में विद्यमान हरिकेशी मुनि का प्रकरण इस तथ्य को स्पष्ट प्रतिपादित करता है कि लोकनिंद्य या नीच कुल में जन्म लेने से कोई नीचगोत्री नहीं होता, अपितु अपने निंद्य आचरण से वह नीच गोत्री होता है तथा साधु बन जाने पर वही उच्चगोत्री हो जाता है। लोढ़ा साहब के अनुसार व्यक्तित्व के मोह या अहंभाव रूप मद से ग्रस्त व्यक्ति हीनता - दीनता - दासता एवं परतन्त्रता में आबद्ध रहता है। दासता या परतन्त्रता में आबद्ध रहना ही नीचगोत्र का उदय है तथा उस दासता पर विजय प्राप्त करना एवं इससे स्वतंत्र होना ही उच्चगोत्र का प्रतीक है।
लोढ़ा साहब लिखते हैं- भूमि, भवन आदि जड़, विनाशी एवं पर वस्तुओं के आधार पर अपना मुल्यांकन करना दीनता का सूचक है । नीच गोत्र का द्योतक है तथा भोग से ऊपर उठना अर्थात् साधुत्व का होना उच्चगोत्र है।
बंध तत्त्व
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