Book Title: Jain Tattva Sara
Author(s): Kanhiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 247
________________ भी परिगणित है तो आतप, उद्योत उपघात, पराघात, आदेय, अनादेय, यशः कीर्ति, अयश:कीर्ति तीर्थंकर नामकर्म जैसी विशिष्ट प्रकृतियाँ भी सम्मिलित हैं। नामकर्म अघाती कर्म है। इसकी ३६ पुद्गल विपाकी प्रकृतियों का सम्बन्ध शरीर विज्ञान से है, यथा- ५ शरीर, ३ अंगोपांग, ६ संहनन, ६ संस्थान, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, आतप, उद्योत, उपघात, पराघात, अगुरुलघु, निर्माण, शुभ-अशुभ, स्थिर-अस्थिर, प्रत्येक और साधारण । मन, वचन, और तन की दुष्प्रवृत्तियों से अशुभ नामकर्म का तथा इनकी सद्प्रवृत्तियों से शुभ नामकर्म का बंध होता है। ___ पुस्तक में नामकर्म की अनेक प्रकृतियों के लक्षणे का लेखक ने मौलिक रीति से प्रतिपादन एवं विवेचन किया है। तदनुसार क्रूरता एवं विषय-कषाय की अतिगद्धता नारकीय गति की द्योतक एवं जनक है। प्राप्त विषय-भोग में गृद्धता एवं मूर्छा होने तथा उसी को जीवन मानने पर जड़ता जैसी स्थिति को तिर्यंच गति कहते हैं। विषयभोग के दुःखद परिणाम को जानकर उससे छूटने एवं उस पर विजय प्राप्त करने का प्राप्त करने के साथ उदारता, करुणा, आत्मीयता आदि का व्यवहार मनुष्य गति का सूचक है। दिव्य सात्त्विक प्रकृति के सुखभोग में डूबे रहना, अपने विकास के लिए उद्यत न होना देवगति का सूचक है। प्रकारान्त से कहें तो अप्राप्त अनेक वस्तओं की कामना करने वाला घोर अभावग्रस्त जीव नरकगामी, प्राप्त वस्तुओं की कामना करने वाला घोर अभावग्रस्त जीव नरकगामी, प्राप्त वस्तुओं के भोगों की दासता में आबद्ध रहने वाला तिर्यंचगामी, प्राप्त वस्तुओं का परोपकार या सेवा में सदुपयोग करने वाला देवगामी एवं प्राप्त विषय-भोगों का त्याग करने वाला जीव मुक्तिगामी होता है। जन्म से इन्द्रियों की प्राप्ति के आधार पर जाति के एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि पाँच भेद किए जाते हैं। एकेन्द्रिय जीव में मात्र स्पर्शनेन्द्रिय पायी जाती है। जब उसकी चेतना का विकास होता है तो वह द्वीन्द्रिय एवं फिर क्रमशः चेतना का विकास होने पर त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय बनता है। स्पर्शन का ही विकास रसना, घ्राण, चक्षु एवं श्रोत्र में होता है। ज्ञानावरणीय एवं दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से जीव में ज्ञान एवं दर्शन की शक्ति बढ़ती है। इससे वह स्थूलतर, स्थूल, सूक्ष्म, सूक्ष्मतर पदार्थां के [226] जैनतत्त्व सार

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