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जो स्वार्थपरता को त्यागकर दूसरों का अहित करने से अपने को बचाता है वह ही आदर के योग्य है, आदेय है और जो उदारता पूर्वक दूसरों के हित में, सेवा में तत्पर होता है वह ही प्रशंसा का, यशकीर्ति का पात्र होता है। इसके विपरीत जो स्वार्थी एवं दूसरों का अहित करने वाला होता है वह अनादर का, अनादेय का पात्र होता है और जो अनुदार एवं दूसरों का शोषण करने वाला होता है। वह अयशकीर्ति का पात्र होता है।
आशय यह है कि जो विषय-भोगों के सुख में आबद्ध है, स्वार्थी है, अनुदार है वह दुर्भग, अनादेय और अयशकीर्ति का पात्र है तथा जो विषय-भोग के सुख को घटाता है, त्यागता है, हिंसा आदि दोषों से अपने को बचाता है, श्रावक व साधु है, उसके कभी भी दुर्भग, अनादेय और अयशकीर्ति का उदय नहीं होता है। सच्चे श्रावक एवं साधु के सदैव सुभग, आदेय एवं यशकीर्ति का उदय रहता है। भले ही इनके पास धन-संपत्ति, विषय सुखों की भोग-सामग्री व सुविधा कुछ नहीं हो तथा इनका कोई अनादर तथा निंदा कर रहा हो। क्योंकि ये प्रकृत्तियाँ जीव विपाकी हैं। इतः इनका सम्बन्ध जीव के भावों से एवं आचरण से है। बाह्य भोग-सामग्री न्यून होना दुर्भग तथा अधिक होना सुभग नहीं है। दूसरों के द्वारा आदर दिया जाना और अनादर किया जाना, अनादेय नहीं है तथा दूसरों के द्वारा प्रशंसा, यशकीर्ति और निंदा किया जाना अयशकीर्ति नहीं है। सुभग, आदेय तथा यशकीर्ति ये पुण्य प्रकृतियाँ हैं। अतः आत्मा के पवित्र भावों व पवित्र आचरण से इनका सम्बन्ध है। इसी प्रकार दुर्भग, अनादेय तथा अयशकीर्ति पाप प्रवृत्तियाँ हैं, अतः आत्मा के अपवित्र-दूषित भावों एवं दुराचरण से इनका सम्बन्ध है।
_ विशेष जानकारी के लिए लेखक की पूर्व प्रकाशित पुस्तक 'बन्ध तत्त्व' के नाम कर्म अध्याय में निम्नांकित प्रकरण पठनीय है- नामकर्म का विस्रसाभाव (पारिणामिक भाव); नामकर्म के बंध हेतु; नामकर्म की विभिन्न प्रकृतियाँ; गति नामकर्म; जाति नामकर्म एवं इन्द्रियों का विकास। गोत्र कर्म
जैनागम में गोत्रकर्म के विषय में कहा हैगोए णं भंते! कम्मे कइविहे पण्णत्ते? गोयमा! दुविहे पण्णत्ते, तंजहा- उच्चगोए य नीयागोए व ॥
-पन्नवणा पद 23, उद्दे.2
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जैनतत्त्व सार