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साधना पथ पर आगे बढ़ता जाता है उसका सेवाभाव विस्तृत होता जाता है तथा कर्तत्व भाव घटता जाता है। यह कल्याणकारी सेवाभाव जितना विभु होता जाता है, तीर्थंकर प्रकृति का अनुभाग उतना ही बढ़ता जाता है जो आठवें गुणस्थान में अपनी चरम सीमा पर पहँच जाता है। उस समय उसमें संसार के समस्त जीवों का कल्याण होवे, सब जीव निर्विकार होवें, यह उत्कर्षभाव हो जाता है। जिससे तीर्थंकर प्रकृति का अनुभाग उत्कृष्ट हो जाता है और फिर अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान हो जाता है। तब वह तीर्थ की स्थापना करता है और भव्य जीवों को मुक्ति के मार्ग का उपदेश देता है। त्रस नाम कर्म
जिस कर्म के उदय से जीव एक स्थान से दूसरे स्थान तक स्व-प्रयत्न से चल सके वह त्रस नाम कर्म है। द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीव त्रस जीव हैं। स्थावर नाम कर्म
__ जिस कर्म के उदय से जीव स्वेच्छा से न चल सके, एक ही स्थान पर स्थिर रहे, वह स्थावर नाम कर्म है। बादर नामकर्म
जिस जीव का शरीर छेदा, भेदा जा सके, ऐसे स्थूल शरीर का मिलना बादर नामकर्म है। सूक्ष्म नामकर्म
जिस जीव का शरीर अदृश्य हो एवं इतना सूक्ष्म हो कि छेदा-भेदा नहीं जा सके वह सूक्ष्म नामकर्म है। पर्याप्त नामकर्म
जिस कर्म के उदय से जीव अपनी योग्य पर्याप्तियों से युक्त हो, उसे पर्याप्त नाम कर्म कहते हैं। अपर्याप्त नामकर्म
जिस कर्म के उदय से जीव अपनी योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण न कर सके, उसे अपर्याप्त नामकर्म कहते हैं। प्रत्येक नामकर्म
जिस कर्म के उदय से प्रत्येक जीव को अपना शरीर पृथक् मिले उसे प्रत्येक नामकर्म कहते हैं।
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जैनतत्त्व सार