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सुस्वर और दुःस्वर दोनों मानना होगा जो कर्म सिद्धान्त के विपरीत है, क्योंकि वहाँ किसी जीव के दोनों स्वरों का उदय युगपत् होना नहीं माना है। जब दुःस्वर का उदय हो तब उसकी वाणी सभी को अप्रीतिकर लगनी चाहिए, परन्तु ऐसा नहीं होता है। अतः सुस्वर-दुःस्वर के उदय का सम्बन्ध स्वयं व्यक्ति को मधुर व कर्कश स्वर लगने से है। दूसरों को प्रिय और अप्रिय स्वर लगने से नहीं हो सकता।
अथवा
सुस्वर- जिस कर्म के उदय से कोमल और सुंदर कंठ मिले, बोलने की, अपने भावों को स्पष्ट प्रदर्शित करने की क्षमता प्राप्त हो, स्वर में मिठास हो, वह सुस्वर प्रकृति है। जीव में प्रकट होने से यह जीव विपाकी प्रकृति है। एक अन्य लक्षण के अनुसार जिस स्वर से स्वयं जीव को आघात न पहुँचे वह सुस्वर प्रकृति है।
दुःस्वर- जिस कर्म के उदय से कठोर और कर्कश कंठ (वाणी) मिले, जिसके उदय से अपने भावों को स्पष्ट करने की क्षमता प्राप्त न हो, वह दुःस्वर प्रकृति है। इसका प्रभाव जीव पर होता है। अतः यह भी जीव विपाकी प्रकृति है।
सुभग-दुर्भग, आदेय-अनादेय, यशकीर्ति-अयशकीर्ति नामकर्म
वर्तमान में सुभग नामकर्म का प्रचलित अर्थ है जो सबके मन को प्रिय लगे वह सुभग है और अप्रिय लगे वह दुर्भग नाम कर्म है। इसी प्रकार आदेय नाम कर्म के उदय का अर्थ- जिसके वचन बहुमान्य हों, जिसका आदर दूसरे व्यक्ति करें यह माना जाता है और अनादेय के उदय का अर्थ इसके विपरीत माना जाता है। यशकीर्ति के उदय से दुनिया में यशकीर्ति प्राप्त हो और अयशकीर्ति के उदय से दुनिया में अपयश मिले यह माना जाता है। परन्तु दुर्भग, अनादेय और अयशकीर्ति के उदय से दूसरों को अप्रिय लगना, दूसरों के द्वारा वचन मान्य न होना अथवा अनादर होना और दूसरों के द्वारा अपयश करना माना जाय तो व्रती श्रावक, साधु एवं वीतराग के प्रति भी ऐसा व्यवहार देखा जाता है। अतः इस प्रकार व्रतधारी श्रावक, साधु एवं वीतराग भी सुभग, आदेय एवं यशकीर्ति वाला हो ही नहीं सकता, क्योंकि गोशालक को भगवान महावीर के वचन, यज्ञ करने वाले ब्राह्मणों को श्री हरिकेशी मुनि के वचन अप्रिय लगे। इन्होंने इनके वचन को अमान्य किया, घोर अनादर किया और अवर्णवाद किया। इससे महावीर भगवान व हरिकेशी मुनि के अनादेय व अयशकीर्ति का उदय मानना असंगत लगता है। इसके स्थान पर सुभग का अर्थ
बंध तत्त्व
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