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अर्थात् जिस प्रकार आकृति की बनावट एवं रंगों की सजावट से चित्र नाना रूप धारण कर लेते हैं, इसी प्रकार शरीर की आकृति आदि की बनावट और जीव के परिणामों से शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों से नाम कर्म अनेक रूपों में प्रकट होता है। ___ नाम कर्म का सम्बन्ध शरीर से है अर्थात् शरीर, इन्द्रिय, मन, वचन, क्रिया आचरण व व्यवहार से है। शरीर में इन्द्रियों का होना, शरीर की संरचना, आकृति, सबलता-निर्बलता (हनन) शरीर के पुद्गलों के वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, वचन का कांत, मधुर, प्रिय होना आदि सब नाम कर्म से सम्बद्ध हैं। ___ नाम कर्म की 36 पुद्गल विपाकी प्रकृतियों का सम्बन्ध शरीर संरचना विज्ञान से है, यथा 5 शरीर (औदादिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस शरीर, कार्मण शरीर)3 अंगोपांग (औदारिक, वैक्रिय, आहारक),6 हनन (वज्रऋषभ नाराच, ऋषभ नाराच, नाराच, अर्द्ध नाराच, कीलक और सेवार्त) 6 संस्थान(समचतुरस्र, न्यग्रोध, सादि, वामन, कुब्जक और हुंडक), वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, आतप, उद्योत, उपघात, पराघात, अगुरु-लघु, निर्माण, शुभ-अशुभ, स्थिर-अस्थिर, प्रत्येक, साधारण ये 36 पुद्गल विपाकी प्रकृतियाँ शरीर से संबंधित हैं। इनमें जो शरीर के स्वरूप एवं पूर्णरूप की सूचक हैं तथा सहायक हैं वे पुण्य प्रकृतियाँ हैं और जो अनिष्ट हैं अस्वस्थता व अपूर्णता की सूचक हैं वे पाप प्रकृतियाँ हैं।
चित्रकार द्वारा कोई चित्र बना देने के पश्चात् उसके भाव बदल जाते हैं। पहले का भाव नष्ट हो जाता है, नया भाव आ जाता है, परन्तु चित्र नष्ट नहीं होता है कुछ काल तक रहता है। इसी प्रकार घातिकर्म बदल जाते हैं, परन्तु उनके निमित्त से उत्पन्न हुए अघाती कर्म तत्काल नष्ट नहीं होते हैं, बने रहते हैं। उन पर प्राणी का वश नहीं चलता है, उनका प्रकृति के विधान से सर्जन होता है। वे प्रकृति की देन हैं। प्रकृति के विधान में किसी का अहित नहीं है। अतः ये कर्म अघाती हैं।
घाती कर्म यानी दोष प्राणी की स्वयं की उपज या देन हैं। घाती कर्म करने या न करने में एवं उनका क्षय करने में प्राणी स्वाधीन है, परन्तु अघाती कर्मों का क्षय करने में स्वाधीन नहीं है। जैसे भोजन करने न करने में, अच्छा बुरा भोजन करने में प्राणी स्वाधीन है, परन्तु भोजन के पश्चात् उसका पाचन होना, उसका शरीर पर प्रभाव प्रकट होना- यह प्रकृति का कार्य है, इसमें प्राणी स्वाधीन नहीं है। विष खाना न खाना अपने वश की बात है, परन्तु उसके प्रभाव रूप मूर्छा-बेहोशी न आने में वश की बात नहीं है। शरीर का विकास होना, आयु समाप्त होना, निकृष्ट
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जैनतत्त्व सार