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वह शरीर व इन्द्रिय सुख के भोग में प्रवृत्त हो, मोहित हो जाता है तो उसे शरीर व इन्द्रिय सुख-सुन्दर व स्थायी प्रतीत होने लगता है । इस प्रकार उसका पूर्व का सच्चा ज्ञान आच्छादित हो जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो अज्ञानरूप हो जाता है अर्थात् ज्ञान अज्ञान में रूपान्तरित, संक्रमित हो जाता है। आगे भी उसका मोह जैसे-जैसे घटता-बढ़ता जायेगा उसकी इस अज्ञान की प्रकृति में भी घट-बढ़ होती जायेगी, अपवर्तन- उद्वर्तन होता जायेगा और मिथ्यात्व रूप मोह का नाश हो जायेगा, जिससे अज्ञान का नाश हो जायेगा और ज्ञान प्रकट हो जायेगा । वही अज्ञान, ज्ञान में बदल जायेगा। इसी प्रकार क्षोभ (क्रोध) और क्षमा, मान और विनय, माया और सरलता, लोभ और निर्लोभता, हिंसा और दया, हर्ष और शोक, शोषण और पोषण, करुणा और क्रूरता, प्रेम और मोह, जड़ता और चिन्मयता, परस्पर में वर्तमान प्रकृतियों के अनुरूप संक्रमित - रूपान्तरित हो जाते हैं। किसी प्रकृति की स्थिति व अनुभाग का घटना (अपवर्तन) - बढ़ना, (उद्वर्तन) भी स्थिति, संक्रमण व अनुभाग संक्रमण के ही रूप है।
संक्रमण करण का उपर्युक्त सिद्धान्त स्पष्टतः इस सत्य को उद्घाटित करता है कि किसी ने पहले कितने ही अच्छे कर्म बांधे हों, यदि वह वर्तमान में दुष्प्रवृत्तियाँ कर बुरे (पाप) कर्म बांध रहा है, तो पहले के अच्छे (पुण्य) कर्म बुरे (पाप) कर्म में बदल जायेंगे, फिर उनका कोई अच्छा सुखद फल नहीं मिलने वाला है। इसके विपरीत किसी ने पहले दुष्कर्म (पाप) किए हैं, बांधे हैं, परन्तु वर्तमान में वह सत्कर्म कर रहा है, तो वह अपने बुरे कर्मों के दुःखद फल से छुटकारा पा लेता है। दूसरे शब्दों में कहें तो व्यक्ति हम अपने वर्तमान जीवन काल का सदुपयोगदुरुपयोग कर अपने भाग्य को सौभाग्य या दुर्भाग्य में बदल सकते हैं।
नियम - 1. प्रकृति संक्रमण बध्यमान प्रकृति में ही होता है। 2. संक्रमण सजातीय प्रकृतियों में ही होता है।
करण-1 - सिद्धान्त का महत्त्व
करण ज्ञान में महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त यह है कि वर्तमान में जिन कर्म प्रकृतियों का बन्ध हो रहा है। पुरानी बंधी हुई प्रकृतियों पर उनका प्रभाव पड़ता है और वे वर्तमान में बध्यमान प्रकृतियों के अनुरूप परिवर्तित हो जाती हैं। सीधे शब्दों में कहें तो वर्तमान में हमारी जो आदत बन रही है, पुरानी आदतें बदल कर उसी के अनुरूप हो जाती है। यह सबका अनुभव है। उदाहरणार्थ - प्रसन्नचन्द्र राजर्षि को ले सकते हैं।
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जैतत्त्व सा