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उतना-उतना मोह के स्वरूप का अधिक-अधिक ज्ञान होता जाता है। यह संभव है कि जिस समय वह व्यक्ति कामना रहित, तटस्थ, शांत व समता अवस्था में है, उस समय कामना में न बहकर-कामना के प्रवाह में बहते समय जो बेसुध होने की स्थिति हुई, उसे देखे तो वह अपनी मोहावस्था का ज्ञान कर सकता है। उसी समय उसे पता चल सकता है कि जिस समय कामना के प्रवाह में बहा, उस समय चित्त कितना अशान्त, क्षुब्ध, व्याकुल, बेहोश हुआ एवं हृदय विदारक वेदना हुई।
व्यक्ति मोह के कारण यथार्थता को नहीं देख पाता। वह हाड़, मांस, रक्त, शकृत्, मूत्र आदि अशुचि वस्तुओं के पुतले (शरीर) में सौंदर्य, मरणशील को स्थायी, दुःख को सुख, पराधीनता को स्वाधीनता, धन-भवन आदि जड़ वस्तुओं को जीवन मान लेता है और इन्हीं की प्राप्ति में अपना जीवन पूरा कर देता है तथा मृत्यु आने के क्षण तक भी उसे सुख व तृप्ति की प्राप्ति नहीं होती है। इसलिए मोहकर्म पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है। मोह को आठों कर्मों का सेनापति की उपमा दी जाती है, अतः जो इसे जीत लेता है वह समस्त कर्मों की सेना को जीत लेता है अर्थात् समस्त कर्मों का क्षय करने में समर्थ हो जाता है। कर्म-बंध का मूल मोहकर्म ही है, क्योंकि बंधहेतु-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद एवं कषाय इसी मोहकर्म के विविध रूप हैं। मोहनीय कर्म के मूलतः दो प्रकार है- 1. दर्शन मोहनीय और 2. चारित्र मोहनीय।
दर्शन मोहनीय - श्रद्धा, विश्वास, आस्था या मान्यता को दर्शन कहते हैं। जब हमारी श्रद्धा, मान्यता मोहयुक्त हो तो उसेदर्शन मोहनीय कहते हैं। इससे जीव में स्वरूप, स्वभाव, साध्य, साधन, सिद्धि व साधक के विषय में विपरीत धारणाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। दर्शन मोहनीय के तीन प्रकार हैं- 1. मिथ्यात्व मोहनीय 2. सम्यक्त्व मोहनीय और 3. मिश्र मोहनीय।
मिथ्यात्व मोहनीय - अविनाशी, सत्य, तत्त्व के प्रति श्रद्धा न होना और विनाशी, अध्रुव, अनित्य पदार्थों व भोगों के प्रति श्रद्धा होना मिथ्यादर्शन या मिथ्यात्व मोहनीय है। इसके विपरीत ध्रुव व सत्य तत्त्व के प्रति श्रद्धा होना सम्यग्दर्शन है। जैन वाङ्मय में मिथ्यात्व मोहनीय को संक्षेप में मिथ्यात्व कहते हैं।
सम्यक्त्व मोहनीय - जिस कर्म प्रकृति के उदय से जीव सम्यग्दर्शनजनित शान्ति के सुख में रमण करने लगे और यथाख्यात चारित्र के प्रति उत्कृष्ट उत्कंठा न होने लगे वह सम्यक्त्व मोहनीय है। दूसरे शब्दों में सम्यक्त्व में मोहित होना आगे न
बंध तत्त्व
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