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वह सामुदायिक कर्म का उदय है? आयु कर्म वर्तमान जीवन के अन्तिम क्षण में अथवा आयु का तिहाई भाग शेष रहने पर बंधता है। किसी भी घटना में वहाँ स्थित सभी जीवों के आयु का अंतिम क्षण व आयु का तिहाई भाग शेष नहीं हो सकता। अतः समुदाय के सभी जीवों के एक साथ एवं एक समान स्थिति वाला आयुकर्म का बंध होना संभव नहीं है आयु कर्म केवल उसके आगामी एक भव का ही बंधता है, उससे आगे के भवों का नहीं बंधता है। यदि सामुदायिक कर्म का प्रचलित अर्थ स्वीकार किया जाय तो किसी घटना के समय बंधने वाले आयु कर्म को भोगने के लिए समुदाय के सभी जीवों का अगले भव में एक ही स्थान में जन्म लेना आवश्यक होगा, जो असंभव है।
जिस समय दुर्घटना घटती है उस समय मनुष्य के समुदाय के साथ द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय मक्खी, मच्छर आदि हजारों त्रस जीव एवं पृथ्वी, जल आदि असंख्य स्थावर जीव भी उस दुर्घटना के कारण मरते हैं उसे सामुदायिक कर्म व उदय का फल माना जाता है तो उन अन्य जीवों का मरण भी उसी सामुदायिक कर्म के उदय का परिणाम मानना होगा, जो आगम सम्मत व युक्तिसंगत नहीं है। हमारे भोजन करते समय वनस्पति काय के अंनत जीवों, वायुकाय, पृथ्वीकाय, अप्काय आदि के असंख्यात जीवों की आकस्मिक दुर्घटना से, मृत्यु हो रही है। अतः इन सब जीवों के सामुदायिक कर्म का उदय मानना होगा, जो उचित नहीं है।
कर्म सिद्धान्त का यह नियम है कि किन्हीं दो प्राणियों का कर्म परस्पर जुड़कर उदय में नहीं आता है। कारण कि प्रतिक्षण प्रत्येक प्राणी के कर्म में उद्वर्तन, अपवर्तन, संक्रमण रूप से परिवर्तन होता रहता है। अतः प्रत्येक घटना में सभी जीवों का अपना-अपना कर्म ही उदय में आता है, वह किसी अन्य प्राणी के कर्म से जुड़कर उदय में नहीं आ सकता। यदि जुड़कर उदय में आता होता तो आगम में व कर्म सिद्धान्त के ग्रन्थों में उसका कहीं न कहीं उल्लेख अवश्य होता । परन्तु मेरे देखने में ऐसा कहीं नहीं आया। सामुदायिक कर्म का जहाँ भी उल्लेख आया है वहाँ वह केवल आठ कर्मों में से कितने कमों के समुदाय का अर्थात् 8 कर्म, 7 कर्म, 6 कर्म के समुदाय का बंध होता है, इस प्रकार का उल्लेख आया है। कहीं पर भी जीवों के समुदाय का एक जुट होकर कर्म बांधने व उदय आने का वर्णन नहीं आया है। आशा है कर्म-सिद्धान्त विशेषज्ञ इस विषय पर विशेष प्रकाश डालेंगे।
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जैनतत्त्व सार