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पुण्य प्रवृत्तियों, शुभ कर्मों को अपनाना चाहिये। कारण कि जैसा बीज बोया जाता है, वैसा ही फल लगता है। किसी की हिंसा या बुरा करने वाले को फल में हिंसा ही मिलने वाली है, बुरा ही होने वाला है। भला या सेवा करने वाले का उसके फलस्वरूप भला ही होता है।
किसी विषय, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदि के प्रति अनुकूलता में राग रूप प्रवृत्ति करने से उसके साथ सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। यह सम्बन्ध ही बंध है, बन्धन है। इस प्रकार राग-द्वेष करने का प्रभाव चेतना के गुणों पर क्या, उन गुणों की अभिव्यक्ति से संबंधित माध्यम शरीर, इन्द्रिय, मन, वाणी आदि पर भी पड़ता है। अतः राग-द्वेष रूप जैसी प्रवृत्ति होती है, वैसे ही कर्म बंधते हैं तथा जितनी-जितनी राग-द्वेष की अधिकता-न्यूनता होती है, उतनीउतनी बंधन के टिकने की सबलता-निर्बलता तथा उसके फल की अधिकतान्यूनता होती है। इसलिए जो व्यक्ति जितना राग-द्वेष कम करता है, समदृष्टि रहता है, वह पाप कर्म का बंध नहीं करता है। अत: बंध से बचना है, तो राग-द्वेष से बचना चाहिये।
नियम- 1. कर्म बंध का कारण राग-द्वेष युक्त प्रवृत्ति है। 2. जो जैसा अच्छा-बुरा कर्म करता है, वह वैसा ही सुख-दुःख रूप फल भोगता है। 3. बन्धे हुए कर्म का फल अवश्यमेव स्वयं को ही भोगना पड़ता है। कोई भी अन्य व्यक्ति व शक्ति उससे छुटकारा नहीं दिला सकती। निधत्त करण
कर्म की वह अवस्था जिसमें स्थिति तथा रस में संक्रमण और उदय नहीं हो, परन्तु स्थिति और रस में घट-बढ़ (अपर्वतन-उद्वर्तन) हो सके, उसे निधत्तिकरण कहते हैं। उदाहरणार्थ मलेरिया, तपेदिक, हैजा आदि के विषाणु शरीर में प्रविष्ट हो जायें और वहाँ उनमें बाहरी प्रभाव हो हानि-वृद्धि होती रहे, परन्तु वे बाह्य में रोग के रूप में प्रकट नहीं हो तथा दवा के प्रभाव से भी उनका रूपान्तरण नहीं हो, इसी प्रकार सत्ता में स्थित जिन कर्मों का कषाय के घटने-बढ़ने से उनके स्थिति एवं अनुभाग में घट-बढ़ अपकर्षण-उत्कर्षण (अपवर्तन-उद्वर्तन) हो, परन्तु उनका अन्य सजातीय कर्म-प्रकृतियों में रूपान्तरण (संक्रमण) न हो तथा उदय भी न हो, कर्म की ऐसी अवस्था को निधत्तिकरण कहते हैं।
नियम- निधत्तकरण में संक्रमण एवं उदय (उदीरणा) नहीं होते हैं।
बंध तत्त्व
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