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नीरसता से ऊबकर सुख पाने के लिए नई इच्छा उत्पन्न होती है। इस प्रकार इच्छाओं की अपूर्ति से जनित अभाव सदा बना रहता है। अभाव का अनुभव होना ही अन्तराय का सूचक है। विषय-भोग के सुख में व भोगों की इच्छा में आकुलता रहती है। ध्यान-साधना से साधक अंतर्मुखी हो निर्विकल्पता के, निराकुलता के सुख का अनुभव करता है। निराकुलता के व शान्ति के सुख की अनुभूति से विषय-भोगों के आकुलता युक्त सुख में दुःख का अनुभव होता है। यह अनुभव जितना-जितना गहरा होता जाता है उतना-उतना विषय-सुखों में असह्य दुःख का अनुभव होता है और अंत में विषय-सुख का प्रलोभन व दासता सदा के लिये मिट जाती है, जिससे अंतराय कर्म का क्षय होकर अनन्तदान, अनन्त लाभ, अनन्त भोग, अनन्त उपभोग एवं अनन्तवीर्य की उपलब्धि व अनुभूति हो जाती है।
__ ध्यान-साधना से जैसे-जैसे राग-द्वेष-मोह घटते जाते हैं, समताभाव बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे अनुभव के क्षेत्र में स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर प्रगति होती जाती है, तथा आंतरिक शक्तियाँ व अनुभूतियाँ विशेष रूप से प्रकट होती जाती हैं। आतंरिक शक्ति के बढ़ने से उसका पुरुषार्थ-वीर्य बढ़ता है जो उत्साह के रूप में प्रकट होता है और उद्देश्य या लक्ष्य की सिद्धि या सफलता प्राप्ति में सहायक होता है।
आन्तरिक शक्ति जैसे-जैसे बढ़ती जाती है वैसे-वैसे अधिक से अधिक सूक्ष्म संवेदनाओं की अनुभूति बढ़ती जाती है जो समत्व व प्रीति व प्रमोद के रूप में व्यक्त होती है।
ध्यान-साधना से विरतिभाव बढ़ता है जो कामनाओं, वासनाओं, कृत्रिम आवश्यकताओं को घटाता है। इनकी उत्पत्ति न होने से साधक को कामना की पूर्ति-अपूर्ति से उत्पन्न होने वाला दु:ख नहीं भोगना पड़ता। संतुष्टि व तृप्तिभाव की अभिवृद्धि होती है तथा उसकी अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति स्वतः हो जाती है। यह प्राकृतिक नियम है कि जो प्राप्त का सदुपयोग करता है उसे उससे अधिक हितकर वस्तुओं की प्राप्ति अपने आप होती है। अभाव का दुःख उसे पीड़ित नहीं करता। उसका चित्त सदा समृद्धि से भरा होता है।
ध्यान-साधना से जैसे-जैसे राग पतला पड़ता जाता है वैसे-वैसे स्वार्थपरता, संकीर्णता घटती जाती है; सेवाभाव, करुणाभाव, परोपकार और दान की भावना बढ़ती जाती है।
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जैनतत्त्व सार