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धम्मकहाए णं निज्जरं जणयइ। धम्मकहाए णं पवयणं पभावेइ। पवयण-पभावेण जीवे आगमिस्स भद्दत्ताए कम्मं निबंधइ।
-उत्तरा अ. २९ बोल २३ धर्मकथा से जीव के कर्मों की निर्जरा होती है, धर्मकथा से जीव प्रवचन की प्रभावना करता है। प्रवचन की प्रभावना से आगामी काल के भद्रता वाले आर्थत् भविष्य में शुभ फलदायक पुण्य कर्मों का उपार्जन करता है।
धर्मकथा धर्मध्यान की तृतीय भावना है। इससे कर्मों की निर्जरा होती, है, स्थिति का क्षय होता है और शुभ कर्मों का उपार्जन (आस्त्रव) होता है। पुण्य के अनुभाग में वृद्धि होती है।
___ जहा उ पावगं कम्मं रागदोससमजियं।
खवेइ तवसा भिक्खू तमेगग्गमणो सुण॥-३०.१ भिक्षु राग-द्वेष से उपार्जित पाप कर्म का क्षय तप से जिस प्रकार करता है। उसे एकाग्रचित होकर सुनो।
जहा महातलायस्स, सन्निरुद्ध जलागमे। उस्सिचणाए तवणाए, कर्मेणं सोसणाभवे।।
एवं तु संजयस्सावि, पावकम्मनिरासवे। भवकोडि-संचियं कम्म, तवसा निज्जरिजइ।।- उत्तरा ३०.५-६
जिस प्रकार किसी बड़े तालाब में जल के आने को रोक देने पर पहले का शेष जल उलीचने एवं तपने से सूख जाता है, इसी प्रकार संयमी साधु के भी पाप कर्मों का आस्त्रव रुक जाने पर तप से करोडों भवों के कर्म निर्जरित- क्षीण हो जाते हैं।
_इस गाथाओं में तप से पाप कर्मों के क्षय पापास्त्रव के निरोध का ही प्रतिपादन किया गया है, पुण्यास्रव के निरोध का नहीं। "तवसा धुणइ पुराणपावर्ग, जुत्तो सया तवसमाहिए।"
- दशवैकालिक सूत्र अ.९ उ.४ गाथा ४ मोह रहित होने में, संयम में, आर्जव, मार्दव आदि गुणों में और तप से रत साधु पूर्वकृत पाप कर्मों को क्षय करता है और नवीन पाप कर्मों का बंध नहीं करत है। इस प्रकार साधक अपने अशुभ कर्मों का क्षय कर देते हैं।
निर्जरा तत्त्व
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