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की निर्जरा संयम, तप, त्याग आदि साधन से संभव नहीं है। यही तथ्य उपर्युक्त गाथा ९५ से प्रकट होता है। गाथा ९३-९४ में तो कहा है कि धर्म ध्यान एवं शुक्ल ध्यान से शुभास्रव होता है और इसकी अगली गाथा में यह कह दिया गया कि आस्त्रव द्वार संसार के कारण हैं इसलिये धर्म ध्यान व शुक्ल ध्यान से नहीं होते हैं। उससे यह स्पष्ट है कि आगम में आस्रव द्वार उन्हीं को कहा है जो संसार वृद्धि के हेतु हैं। शुभास्रव (पुण्यासव) संसार वृद्धि का हेतु नहीं है अपितु संसार क्षय का सूचक है, इसलिये पुण्यासव निरोध को संवर का हेतु मानना आगम व कर्मसिद्धान्त के विपरीत है। साधना के क्षेत्र में केवल पाप के आस्रव के निरोध को और निर्जरा में पाप कर्मों के क्षय को ही ग्रहण किया है।
ध्यान सब तपों में प्रधान तप है, कर्मों की निर्जरा का मुख्य हेतु है। इससे पुण्य का आस्रव होता है, पुण्यकर्म का निरोध (संवर) व पुण्य के फल की निर्जरा नहीं होती है। पुण्य का आस्रव व कर्म का शुभानुबंध ये आत्म-विशुद्धि से ही होते हैं। अत: उपर्युक्त गाथाओं में इन्हें धर्म ध्यान, शुक्ल ध्यान का फल कहा है। इनको त्याज्य व हेय नहीं बताया है। केवल पाप के आस्रव के निरोध को संवर और पाप कर्म के क्षय को निर्जरा व मोक्ष तत्त्व में समाहित किया है।
धवला टीका पुस्तक १३ गाथा २३ पृष्ठ ३८ में धर्मध्यान की चार भावनाएं प्रतिपादित हैं-(१) ज्ञानभावना (२) दर्शनभवना (३) चारित्रभावना और (४) वैराग्यभवना। इनमें से चारित्र भावना के स्वरूप व गुण के विषय में कहा गया है
नवकम्माणायाणं पोराणाविणिजरं सुभायाणं। चारित्तभावणाए झाणमयत्तेण य समेइ।
- ध्यानशतक, धवल पु. १३ गाथा २६ अर्थ-चारित्रभावना से नवीन कर्मों के ग्रहण का अभाव, पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा, शुभ (पुण्य) कर्मों का ग्रहण (आदान) और ध्यान, ये बिना किसी प्रयत्न के (स्वतः) होते हैं।
पापाचरण (सावद्ययोग) की निवृत्ति को चारित्र कहा है। इसके ग्रहण का नाम चारित्र भावना है। इस भावना से वर्तमान में आते हुए ज्ञानावरणादि पापा कर्मों का निरोध और पूर्वोपार्जित इन्हीं पाप कर्मों की निर्जरा होती है तथा पुण्य कर्म प्रकृयिों को ग्रहण व ध्यान की उपलब्धि, ये सब अनायास (स्वतः) होते हैं।
निर्जरा तत्त्व
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