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गुण उदारता व प्रीति के सुख की उपलब्धि का सूचक है। लाभ गण निर्लोभता से आविर्भूत संतोषरूपी संपत्ति की उपलब्धि का व्यक्तक है। भोग गण विषय-भोग के सुखों के त्याग से अर्थात् निर्ममता से प्राप्त स्वाधीनता के अखण्ड-पूर्ण सुख के भोग की उपलब्धि का द्योतक है। उपभोग गुण विषय-सुखों के उपभोग के त्याग से अर्थात् निरहंकारता से आविर्भूत स्वाभाविक आत्मीयता व प्रियता के नित-नूतनअनवरत अनन्तसुख के उपभोग की उपलब्धि का एवं वीर्य गुण कर्तृत्वभाव रहित होने से आविर्भूत दोषों के विनाशक सामर्थ्य गुण की उपलब्धि का सूचक है। इन पाँचों गुणों की उपलब्धि निर्दोषता से प्रकट स्वभाव की अभिव्यक्तक है। समस्त स्वाभाविक गुणों में बाधा उत्पन्न होती है विभाव से। विभाव से जीवन स्वभाव से विमुख हो जाता है। यह विमुखता ही अंतराय कर्म है।
विभाव की उत्पत्ति का मूल कारण है विषय-भोगों के सुख का प्रलोभन । विषय-सुख के इच्छुक जीव में स्वार्थपरता का दोष उत्पन्न होता है जो उदारता गुण का अपहरण कर दानान्तराय उत्पन्न कर देता है उसमें इन्द्रिय-विषयों के भोगउपभोग की भोग्य वस्तुओं को प्राप्त व संग्रह करने की इच्छा उत्पन्न होती है जो निज स्वभाव के भोग-उपभोग के सुख का अपहरण कर भोगान्तराय-उपभोगान्तराय कर्म को उत्पन्न कर देती है। भोगी जीव अपने सामर्थ्य का उपयोग व उपभोग विषय-भोगों एवं उनकी भोग्य सामग्री की प्राप्ति में करता है, उसका यह भोक्तृत्व व कर्तृत्व भाव दोषों के त्यागने के सामर्थ्य का अपहरण कर वीर्यान्तराय कर्म को उत्पन्न कर देता है। प्रकारान्तर से कहें तो विषय-भोगों की इच्छा व उनका भोग आत्मा को बहिर्मुखी बनाता है जिससे आत्मा निज स्वभाव में रमण रूप भोगउपभोग के सुख से विमुख व वंचित हो जाती है। निजस्वरूप के अक्षय-अखण्ड अनन्त सुख से वंचित होना ही अंतराय कर्म का उदय है। अतः जितनी-जितनी विषय-भोगों की सुख की इच्छा व दासता घटती जाती है उतना-उतना अंतराय कर्म का क्षयोपशम होता जाता है। विषय-सुख का पूर्ण त्याग होते ही अंतराय कर्म का क्षय हो जाता है।
सांसारिक पदार्थों व भोगों की इच्छा उत्पन्न होते ही चित्त चंचल व चलायमान हो जाता है, जिससे चित्त की शान्ति, स्थिरता व समता भंग हो जाती है। किसी भी जीव की सभी इच्छाएँ पूर्ण नहीं होती हैं। एक इच्छा की पूर्ति होते ही उसकी पूर्ति का सुख कुछ ही क्षणों में विलीन हो जाता है, नीरसता उत्पन्न हो जाती है। इस
निर्जरा तत्त्व
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