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अरति है। इसके विपरीत जहाँ रति-अरति नहीं है, विरति जहाँ रति-अरति नहीं है, विरति है वहाँ कर्म-बंध नहीं है। विरति वहीं होती है जहाँ उदयमान कर्मों में, निमित्तों में रति-अरति, राग-द्वेष, हर्ष-क्षोभ-शोक नहीं है, समभाव है। विषयों के प्रति रति-रुचि, हर्ष राग का जनक है और अरति, अरुचि, शोक, क्षोभ, खिन्नता द्वेष के जनक हैं। राग-द्वेष न होना ही समभाव है। विरति अर्थात् संयम, संवर, समभाव से नवीन कर्मों का बंध रुकता है और पूर्व में संचित पाप-कर्मों के अनुराग की अपकर्षण रूप निर्जरा होती है।
अनुकूल-प्रतिकूल निमित्तों के संयोग (संग) में समभाव रखना विरति, संयम व संवर है और प्रतिकूलता व दुःख का स्वागत करना, उनसे प्रभावित न होना तप है। जैसे भूख लगने पर भोजन करने में स्वाद के प्रति राग-द्वेष, रतिअरति न करना, समभाव रखना संवर है, संयम है और भोजन का त्याग करना, उपवास करना, भूख के दुःख से प्रभावित न होना, शरीर से असंग होना तप है। संवर में समभाव की प्रधानता है और तप में असंगना की प्रधानता है। असंगता से तादात्म्य टूटता है, सम्बन्ध विच्छेद होता है। संबंध विच्छेद होना ही कर्मों का क्षय होना है, कर्म निर्जरा होना है, स्वाधीन होना है, मुक्त होना है, संयम व संवर से नया सम्बन्ध नहीं जुड़ता है, और तप से संबंध टूटना कर्म-क्षय (निर्जरा होना है। तप फल भोगे ही होती है। अतः इसे अविपाक निर्जरा कहा जाता है। यह निर्जरा प्राणी के पुरुषार्थ से, प्रयत्न से, साधना से होती है, अतः इसे सकाम निर्जरा भी कहा जाता है।
कर्म-निर्जरा की प्रक्रिया : तप जिसके द्वारा पूर्व संचित कर्म क्षीण हों, उसे निर्जरा कहते हैं। निर्जरा के दो रूप है: - (१) सविपाक निर्जरा अर्थात् प्राकृतिक रूप से होने वाली निर्जरा और (२) अविपाक निर्जरा अर्थात् साधनात्मक रूप निर्जरा। ___ सविपाक निर्जरा - पूर्वबद्ध एवं संचित कर्मों की परिपाक अवस्था प्राप्त होने पर, स्वतः उदय में आना और फलभोग द्वारा निर्जरित व विनष्ट होना सविपाक निर्जरा है। यह कर्मक्षय की प्राकृतिक प्रक्रिया है। सविपाक निर्जरा संसार के प्रत्येक प्राणी के कर्मोदय के रूप में निसर्गतः प्रतिक्षण हो रही है। यदि प्राणी कर्मफल के भोग में रस लेता है अर्थात् राग-द्वेष करता है तो वह नवीन कर्मबंध करता है। साधारणतः सविपाक निर्जरा में कर्म-क्षय के साथ कर्मबंध जुड़ा है। इस प्रकार
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जैनतत्त्व सार