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जाते हैं, निर्जरित हो जाते हैं। फलितार्थ यह है कि बिना फल भोगे ही कर्मो के क्षय का उपाय है - कषाय का क्षय। कषायक्षय का उपाय ही निर्जरा या तप रूप साधना है। जिस प्रकार ताप से एक-एक बीज भस्म न होकर अगणित बीज एक साथ भस्म हो जाते हैं, इसी प्रकार तप से एक-एक कर्म भस्म या क्षय न होकर असंख्य कर्मों का एक साथ क्षय होता है।
कर्म-क्षय का उपाय कषाय-क्षय है और कषाय-क्षय का उपाय है कषाय को निर्जीव बनाना। कषाय सजीव रहता है राग के रस से अर्थात् रति या सुख लोलुपता से। सुख लोलुपता का कारण है सुख भोग की मधुरता। जैसे सर्प के विष के प्रभाव से मानव मोह ग्रस्त हो जाता है और सुध-बुध खोकर जड़ता को प्राप्त हो जाता है, इसी प्रकार सुख की मधुरता से ग्रस्त व्यक्ति मोह, प्रमाद व जड़ता को प्राप्त हो जाता है जो मृत्यु तुल्य है। इतना ही नहीं, विष के सेवन से तो एक बार प्राणान्त होता है, परन्तु विषय-कषाय के सुख के भोगी को अनेक बार जन्म-मरण की असह्य वेदना सहनी पड़ती है।
सुख-लोलुपता ही समस्त दोषों, कर्म-बन्धनों व असाधनों की जननी है। सुख-लोलुपता, सुख का प्रलोभन, सुख की दासता, सुख भोग की रुचि, सुख की आशा, आसक्ति आदि सुख-भोग रूप रति या अविरति के ही विविध रूप हैं। रति न हो तो दोषों की उत्पत्ति ही न हो। दोष ही दु:ख के जनक हैं। स्वभाव से ही दुःख किसी को भी प्रिय नहीं है। दुःख का अन्त करने का प्रयत्न सभी करते हैं, परन्तु प्राणी फल रूप दुःख का ही अन्त करना चाहता है, दु:ख के मूल दोषों' या रति या सुख लोलुपता का अंत नहीं करता। इससे दु:ख का, बन्धन का आत्यन्तिक क्षय नहीं हो पाता है।
पराधीनताजनित सुख का भोग करते एवं सुख भोग की रुचि रहते दुःखों का अन्त करने का प्रयत्न निष्फल प्रयत्न है। जिस प्रकार शरीर में उत्पन्न रोग का लक्षण, रोग का परिणाम है, कारण नहीं। रोग के लक्षण रूप में प्रकट होने पर रोगी को दु:ख व पीड़ा होती है जिसे दूर करने के लिए रोगी दवा लेता है, जिससे शरीर पर प्रकट लक्षण कुछ काल के लिए लुप्त हो जाते हैं, परन्तु शरीर के भीतर रोग या विकार तब तक ज्यों के त्यों विद्यमान रहते हैं जब तक उनकी उत्पत्ति के कारणों का निवारण न हो। रोग की उत्पत्ति के कारण को दूर न कर लक्षण को दूर करना, रोग को दबाना मात्र है। रोग के लक्षण को दबाकर रोग को मिटा समझना
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जैनतत्त्व सार