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जिस प्रकार ताप (आग) से एक-एक बीज भस्म या निर्जीव न होकर अगणित बीज एक साथ निर्जीव हो जाते हैं व फल देने की शक्ति खो देते हैं, इसी प्रकार तप से असंख्य कर्म एक साथ रस हीन व निर्जीव हो जाते हैं तथा अपनी फल देने की शक्ति खो देते है। अथवा जिस प्रकार तप के प्रभाव व जल के अभाव से पौधे पर लगे प्रचुर पुष्प निर्जीव होकर बिना फल दिये ही खिर जाते हैं, इसी प्रकार तप के प्रभाव व कषाय-रस के अभाव से असंख्य कर्म निर्जीव होकर बिना फल दिये ही निर्जरित हो जाते हैं।
तप : कर्मक्षय की साधना साधना है सत्य का साक्षात्कार करना, जो जैसा है उसे ठीक वैसा ही यथाभूत अनुभव करना अर्थात् बिना किसी प्रकार की मिलावट, जोड़ व भ्रान्ति के वस्तुस्थिति का, सत्य का साक्षात्कार करना साधना है। साधारणतः मानव जो कार्य करते हैं वह राग-रंजित, द्वेष-दूषित तथा मोह-विमूढ़ित (मूर्च्छित) होकर करते हैं। अतः वह शुद्ध साक्षात्कार न होकर राग-द्वेष-मोह से युक्त अशुद्ध अवस्था का अनुभव होता है। इसी अशुद्ध अवस्था का निवारण करने एवं शुद्ध स्वरूप का साक्षात्कार करने के लिये बन्ध के हेतुओं का अभाव एवं निर्जरा से कर्मक्षय कर मोक्ष प्राप्त करने का विधान है।
वस्तु या प्रकृति के स्वभाव को धर्म कहा जाता है - जैसे आग का स्वभाव 'उष्णता' है। यह आग का धर्म है। स्वभाव का साक्षात्कार करना ही धर्म है। अथवा यह कहें कि वस्तु या प्रकृति का वास्तविक रूप ही धर्म है और इस धर्म का साक्षात्कार या अनुभव करना ही धर्म-ध्यान है। सत्य का साक्षात्कार बुद्धिजन्य कल्पनाओं, जल्पनाओं व मान्यताओं से नहीं होता है, अपितु अनुभव से होता है, सत्य पर चलने से होता है। जैसे-जैसे व्यक्ति जीवन में सत्य को स्थान देता जाता है, उस पर आचरण करता है, चरण बढ़ाता जाता है, वैसे-वैसे उसे सत्य की गहराई व सूक्ष्मता का अधिकाधिक साक्षात्कार होता जाता है। यह नियम है कि जो जितना सूक्ष्म होता है, वह उतना ही विभु व अधिक सक्षम होता है तथा अलौकिक, विलक्षण व अचिंत्य शक्तियों का भण्डार होता है। यही नियम या तथ्य ध्यान साधना पर भी घटित होता है।
ध्यान साधना में जिस सत्य का साक्षात्कार होता है उस पर चलने से प्रकृति के सूक्ष्म, सूक्ष्मतर व सूक्ष्मतम सत्यों (सिद्धान्तों, धर्मों व शक्तियों) का प्रत्यक्ष
निर्जरा तत्त्व
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