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भूल है, क्योंकि रोग का वास्तविक अन्त तो विकारोत्पत्ति के कारण के अन्त से ही सम्भव है। यही सिद्धान्त व्यावहारिक जीवन पर भी चरितार्थ होता है। 'दुःख' दोषों या विकारों के परिणामरूप लक्षण है। दुःख को वस्तु आदि सुख की सामग्री की पूर्ति कर दूर करना उसे दबाना मात्र है। इससे दु:ख का अन्त नहीं होता है। दुःख का अन्त तो तब ही संभव है जब दुःख के कारणभूत मूल दोषों को दूर किया जाय। दोषों को विद्यमान रखते हुए दुःख का अन्त करने का प्रयत्न करना निष्फल प्रयास है, भूल है। इसी भूल के कारण प्राणी अब तक दु:ख से मुक्त नहीं हो सका है। फल का विनाश वास्तविक विनाश नहीं है, मूल का विनाश ही वास्तविक विनाश है। दु:ख फल है और दोषजनित सुख के भोग की रुचि या लोलुपता इसका मूल है। सुखभोग की रुचि एवं सुख-लोलुपता के अन्त में ही दु:ख के मूल का अन्त निहित है।
सुखभोग की लोलुपता के नाश में ही दु:ख का नाश निहित है। सुख लोलुपता के अन्त का उपाय है- सुख में दुःख का दर्शन करना। सुख में दु:ख के दर्शन का उपाय है- दुःख को सजीव बनाना। सजीव दु:ख वह है जो दुःख इतना असह्य हो जाय कि दु:खी व्यक्ति विद्यमान दुःख के निवारण से सन्तुष्ट न होकर, दु:ख के मूल कारण 'सुखलोलुपता' के निवारण के लिए उद्यत हो जाय। निर्जीव दु:ख वह है जो सुख की आशा से दब जाय और दुःख रूप अनुभव ही नहीं हो। इससे दुःख के मौलिक कारण के निवारण के प्रयत्न की जिज्ञासा ही उत्पन्न नहीं होता।
दु:ख की अनुभूति ताप है। ताप को सजीव बनाने की क्रिया तप है। तप का कार्य है दोषजनित सुखभोग की रुचि का अन्त करना। सुखभोग का आश्रय है तन
और मन। तन-मन के तादात्म्य या तन-मन में जीवन बुद्धि से ही सुख-भोग की रुचि उत्पन्न होती है। अतः सुख-भोग की रुचि का अन्त करने के लिए तन-मन से तादात्म्य भाव हटाना आवश्यक है। शरीर से तादात्म्य भाव हटाने की क्रिया बाह्यतप है और मन से तादात्म्य भाव हटाने की क्रिया आभ्यन्तर तप है।
तप के भेद तप दो प्रकार का है- बाह्य तप और आभ्यंतर तप। जिस तप से मुख्यतः देह से सम्बधित (देहात्म भाव आदि) विकार दूर हों वह बाह्य तप है और जिस तप से मन या अन्त:करण से सम्बंधित कामनाएँ, वासनएँ आदि विकार दूर हों, वह आभ्यंतर तप है। बाह्य तप के छह भेद है और आभ्यंन्तर तप के भी छह भेद हैं।
निर्जरा तत्त्व
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