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तोड़ना, नष्ट करना, क्षय करना निर्जरा है। पुराने बंधनों को तोड़ने के लिए अंत:करण (कार्मण या कारण शरीर) में, सत्ता में विद्यमान एवं उदयमान भोग-वासनाओं का क्षय करना है अर्थात् त्यागना है। त्याग के दो रूप हैं। प्रथम रूप है नवीन वासनाओं, दोषों को उत्पन्न करने का त्याग करना इसे संवर कहा है। इस त्याग से नवीन सम्बन्ध उत्पन्न होना अर्थात् नवीन बंध होना बंद हो जाता है। त्याग का दूसरा रूप है- उदयमान वासनाओं को, भोगेच्छाओं को त्यागना अर्थात् जो भोग भोगते आए हैं, उनके प्रति राग-आसक्ति (Attachment) को तोड़ना, घटाना- क्षय करना, इसी को निर्जरा (तप) कहा है। निर्जरा का स्वरूप : अकाम-सकाम निर्जरा
पूर्व संचित कर्मों का क्षय होने रूप निर्जरा के दो प्रकार है:- १. अकाम निर्जरा-कर्मों के स्वतः उदय में आने से अथवा किसी निमित्त से उदय में आने से, उन कर्मों को भोगने से होने वाली निर्जरा, इसे सविपाक व अकाम निर्जरा कहा जाता है। २. सकाम निर्जरा- उदय में लाए बिग ही तप से कर्मों को क्षय करने से होने वाली कर्म निर्जरा, इसे अविपाक व सकाम निर्जरा कहते हैं। यहाँ इन दोनों प्रकार की निर्जराओं के स्परूप पर विचार करते हैं। अकाम निर्जरा
कर्म का फल भोगना ही कर्म का उदय है। फलरहित कर्म निष्फल है। कर्म का फल उसके रस से मिलता है। अतः कर्मोदय में रस की ही प्रधानता है, स्थिति व प्रदेश के उदय की नहीं। रसोदय को ही अनुभाग उदय, अनुभाव उदय अथवा विपाक उदय कहा है। रस (सुख) लेना ही भोग भोगना है। जब भोग में प्रवृत्ति होती है तब प्रवृत्ति से शक्ति क्षीण होती है तथा भोगजन्य रस या सुख वास्तविक सुख नहीं होता है, सुखाभास होता है। अतः कर्म के भोग (उदय) से जन्य सुख प्रतिक्षण क्षीण होता जाता है और क्षीण होते-होते अन्त में रसहीन हो जाता है। रस का क्षीण होना, रसहीन होना, कर्म के उदय का न रहना है, कर्म का क्षय व निर्जरा होना है। इसे उदाहरण से समझें- जैसे किसी व्यक्ति ने ताजमहल देखा, उस बहुत सुन्दर लगा व हर्ष-सुख हुआ। धीरे-धीरे वह रस क्षीण होता गया और कुछ समय के पश्चात् वह रस या सुख बिल्कुल न रहा और वह व्यक्ति वहाँ से चलने की तैयारी करने लगा। उसे देखने में रस आना, रस का भोग करना, कर्म का, राग का, रति का उदय था। वह रस अब नहीं रहा और, रस न रहना ही उदय न रहना है।
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जैनतत्त्व सार