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विशुद्धि-संक्लेशांगं चेत् स्व- परस्थं सुखासुखम् । पुष्यपापास्रवो युक्तो न चेद् व्यर्थस्तवार्हतः ।।
देवागमकारिका ६५
अर्थात् आचार्य श्री समस्तभद्र का फरमाना है कि सुख-दुःख अपने को हो अथवा दूसरे को हो, वह यदि विशुद्धि का अंग हो तो पुण्यास्रव का और संक्लेश का अंग (रूप) हो तो पापास्रव का हेतु है । यदि वह इन दोनों में से किसी का भी अंग न हो तो व्यर्थ है, निष्फल है।
तिव्वो असुहसुहाणं संकेस - विसोहिओ विवज्जउ मंदरसो ||
- पंचम कर्म-ग्रंथ गाथा ६३
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अर्थात् अशुभ प्रकृतियों का तीव्र अनुभाग संक्लेश से और शुभ प्रकृतियों का तीव्र अनुभाग विशुद्धि से होता है। इसके विपरीत मंदरस का हेतु है- अर्थात् अशुभ प्रकृतियों के रस में मंदता विशुद्धि से और शुभ प्रकृतियों के रस में मंदता संक्लेश से होती है ।
पाप ही त्याज्य है, पुण्य नहीं
सम्पूर्ण आगमों का सार पापों का त्याग करना है । पापों के त्याग में ही जीव का कल्याण है और पापों के सेवन में ही अकल्याण एवं अहित है ।
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साधना में सर्वत्र पाप के त्याग का ही विधान है, पुण्य के त्याग का विधान कहीं भी नहीं है । साधना का प्रारंभ होता है सामायिक से, समत्व से । सामायिक के प्रतिज्ञा पाठ में 'सावज्जं जोगं पच्चक्खामि' आया है इसका अर्थ है सावद्ययोगपापकारी प्रवृत्ति का त्याग करता हूँ। इस प्रतिज्ञा पाठ से पुण्य प्रवृत्ति के त्याग का कहीं भी विधान नहीं है । साधना के क्षेत्र में आगे भी जितने पाठ हैं उनमें पापों के त्याग का ही विधान है। किसी भी पाठ में किसी पुण्य प्रवृत्ति के त्याग का आदेशनिर्देश, उपदेश नहीं है। यहाँ तक कि साधना का अंतिम चरम बिन्दु संलेखना है । उसके प्रतिज्ञा पाठ में भी 'सव्वं पाणाइवाइयं जाव मिच्छादंसणं सल्लं पच्चक्खामि, पाठ आया है। इसमें भी अठारह ही पाप का त्याग किया गया है। पुण्य के त्याग का यहाँ पर भी कोई विधान नहीं है । इससे यह प्रमाणित होता है कि पुण्य के त्याग का साधना में कहीं भी कोई स्थान नहीं है । यह तथ्त अग्राङ्कित आगम उद्धरणों से भी पुष्ट होता है यथा
जैतत्त्व सा