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एक विशेष बात यह है कि पुण्य एवं पाप दोनों कर्मों का स्थिति बन्ध कषाय से होता है। अत: परिणामों में विशुद्धि होने पर दोनों की स्थिति का अपवर्तन (ह्रास) होता है । विशुद्धभाव होने पर पूर्वबद्ध पाप प्रकृतियों का पुण्य प्रकृतियों में संक्रमण होता है, पापस्रव का कथंचित् संवर होता है, आदि तथ्यों को निरुपण 'पुण्य-पाप का परिणाम' लेख में किया गया है। एक विशेष बात यह कही गई है कि पुण्य के अनुभाग में वृद्धि स्थितिबन्ध के क्षय में हेतु होती है ।
'पुण्य का उपार्जन कषाय की कमी से और पाप का उपार्जन कषाय के उदय से' प्रकरण में पुण्योपार्जन एवं पापोपार्जन की विस्तृत चर्चा करने के साथ यह प्रतिपादित किया गया है कि ( १ ) क्रोध कषाय के क्षय (कमी) से सातावेदनीय (२) मान कषाय के क्षय से उच्चगोत्र ( ३ ) माया कषाय के क्षय से शुभ नामकर्म और (४) लोभ कषाय में कमी होने से शुभ आयु कर्म का उपार्जन होता है। इसके विपरीत इन चारों कषायों में वृद्धि से क्रमश: (१) असाता वेदनीय (२) नीचगोत्र (३) अशुभ नामकर्म और (४) अशुभ आयु का बन्ध होता है ।
जितना पुण्य बढ़ता है अर्थात् विशुद्धिभाव बढ़ता है उतना ही पाप कर्मों का क्षय होता है । क्षायोपशमिक, औपशमिक एवं क्षायिकभाव शुभभाव हैं । इनसे कर्मों का बन्ध नहीं होता है । कर्मों का बंध औदयिकभाव से ही होता है। इस प्रकार का प्रतिपादन 'पुण्य-पाप की उत्पत्ति - वृद्धि क्षय की प्रक्रिया में किया गया है।
लेखक का यह सुदृढ़ मन्तव्य है कि मुक्ति में पुण्य सहायक है एवं पाप बाधक है । पुण्य आत्मा को पवित्र करता है, बद्ध कर्मों की स्थिति का अपकर्षण करता है, इसलिए वह मुक्ति में सहायक है, जबकि पाप कर्म विशेषतः घाती कर्म मुक्ति में बाधक है। लेखक का यह भी कथन है कि पुण्य के अनुभाग का क्षय किसी भी प्रकार की साधना से सम्भव नहीं है । पुण्य और पाप की चौकड़ी के अन्तर्गत श्री लोढा सा० ने असातावेदनीय के उदय में संक्लेश भावों से होने वाले कर्मबन्ध को पापानुबन्धी पाप बताया है उन्होंने धवला टीका के आधार पर सातावेदनीय के उदय में संक्लेश भावों से होने वाले कर्मबन्ध को पापानुबन्धी पुण्य एवं विशुद्धिभावों से होने वाले कर्मबन्ध को पुण्यानुबन्धी पुण्य बताया है।
पुण्य-पाप तत्त्व
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