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बाईस परीषह - संयम-मार्ग से च्युत न होना एवं कमों के क्षय के लिए आत्म-साधना में उत्पन्न हुई बाधाओं को समभावपूर्वक सहन करना परीषह-जय है। संयम में उत्पन्न इन बाधाओं को परीषह कहा है। इसके बाईस भेद हैं
(१) क्षुधा, (२) पिपासा, (३) शीत (४) उष्ण, (५) दंशमशक, (६) नग्नता, (७) अरति, (८) स्त्री, (९) चर्या, (१०) निषद्या, (११) शय्या, (१२) आक्रोश, (१३) वध, (१४) याचना, (१५) अलाभ, (१६) रोग, (१७) तृणस्पर्श, (१८) मल, (१९) सत्कार-पुरस्कार, (२०) प्रज्ञा, (२१) अज्ञान और (२२) अदर्शन।
दश यतिधर्म- 'धर्म' शब्द 'धृ' धातु से बना है। इसका अर्थ है जो धारण किया जाता है। धारण करने योग्य स्वभाव ही होता है। अतः स्वभाव को धारण करना, विभाव को मिटाना ही धर्म है। जैसे-जैसे विभाव मिटता जाता है वैसे-वैसे दोष व दु:ख मिटते जाते हैं, निर्दोषता एवं प्रसन्नता बढ़ती जाती है। यह ही धर्म का स्वरूप है।
स्थानांग सूत्र स्थान १० में धर्म के दश प्रकार कहे हैंदसविहे समणधम्मे पण्णत्ते जं जहाखंती मुत्ती अजवे मद्दवे लाघवे सच्चे संजमे तवे चियाए बंभचेर वाये।। - ठाणांग दश
धर्म दश प्रकार का है, यथा - (१) क्षमा, (२) मार्दव, (३) आर्जव, (४) मुक्ति, (५) तप, (६) संयम, (७) सत्य, (८) शौच, (९) अकिंचनत्व और (१०) ब्रह्मचर्य।
(१)क्षमा- सहनशील रहना अर्थात् क्रोध के कारण उपस्थित होने पर भी उद्विग्नता न हो, हृदय शान्त रहे, क्रोध पर विवेक से विजय पाना, क्रोध न करना क्षमा है।
(२) मार्दव - चित्त में मृदुता तथा व्यवहार में विनम्रता होना मार्दव गुण है। जाति, कुल, ज्ञान, तप, लाभ, ऐश्वर्य आदि किसी का गर्व व मद न होना, मान न करना मार्दव है।
(३) आर्जव - मन, वचन और काया की सरलता होना, इनमें एकता होना, निष्कपट होना आर्जव गुण है अर्थात् माया को जीतना, आर्जव है।
आस्रव-संवर तत्त्व
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