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आत्यन्तिक अन्त करना व चिरन्तन आनन्द की प्राप्ति करना। समस्त दुःखों का मूल कारण है पराधीनता अर्थात् पर की अधीनता या पर का बंधन । अतः बन्धनों से मुक्ति पाना ही दुःखों से मुक्ति पाना है । यह ही मोक्ष प्राप्त करना है, यही मुक्ति प्राणी का साध्य है 1
‘चारित्र' शब्द 'चर्' धातु से बना है। 'चर' का अर्थ है चलना, गति करना, चरना (खाना), अभ्यास करना, आचरण करना, क्रिया या प्रवृत्ति करना, व्यवहार
करना ।
आचरण दो प्रकार का होता है :- सदाचरण और दुराचरण । अथवा सद्प्रवृत्तिदुष्प्रवृत्ति, सदाचरण या सत् आचरण वह है जो आचरण सत् की ओर बढाये, अविनाशी को प्राप्त कराए। दुराचरण या दुष्प्रवृत्ति वह है जो असत् जड़ या नश्वर पुद्गल की ओर बढाये। संक्षेप में कहें तो जो प्रवृत्ति, अभ्यास, अनुष्ठान, क्रिया, असत्, नश्वर, अनित्य की ओर प्रेरित करे, बढाये, संसार भ्रमण कराये, दोष उत्पन्न करे, जिसका फल दुःख रूप मिले वह दुष्प्रवृत्ति है, दोष है, पाप है, अकर्त्तव्य है। इसके विपरीत जो प्रवृत्ति या आचरण, अनुष्ठान, अभ्यास, पुरुषार्थ सत्-सत्य, अविनाशी, अमरत्व की ओर बढाये, जिसका फल शांति, मुक्ति (स्वाधीनता) प्रीति (परमानंद की प्राप्ति हो वह सच्चारित्र या सम्यक चारित्र है । यह सम्यक् ज्ञान का क्रियान्वयन है। प्रकारान्तर से कहें तो जिससे मुक्ति (मोक्ष) की प्राप्ति हो, बंधन से छुटकारा हो वह सम्यक् चारित्र है ।
बन्ध का स्वरूप :
बन्धन से मुक्त होना ही मुक्ति है। अतः सर्वप्रथम बन्धन के स्वरूप को समझना आवश्यक है । वस्तुत: यह बन्धन बाहरी न होकर हमारी ही क्रियाओं व इच्छाओं से निर्मित बन्ध है, जिसे जैन दर्शन में 'कर्मबन्ध' कहा है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार हम जो भी क्रिया, कार्य या विचार की प्रवृत्ति करते हैं उसके प्रभाव का बिंब, चित्र या रूप हमारे अवचेतन मन पर अंकित हो जाता है। इसे साधारण भाषा में 'संस्कार पड़ना' कहते हैं तथा जैन दर्शन में 'कर्म बन्ध' होना कहा जाता है। हमारी प्रत्येक प्रवृत्ति के अनुरूप संस्कार की संरचना अनवरत होती रहती है तथा इन संस्कारों का अन्त:करण में संचय होता रहता है, जो भविष्य में उपयुक्त समय आने पर एवं अनुकूल निमित्त मिलने पर उदय होकर प्राणी को अपना परिणाम भोगने के लिए विवश करते हैं । परामनोविज्ञान ने प्रयोगों के आधार पर सिद्ध कर
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जैतत्त्व सा