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सुख में अर्थात् पर के संग-जनित विषय-कषाय के सुख में आसक्त रहना प्रमत्तता या प्रमाद है।
विरतिभाव से संसार की असारता, अनित्यता, अशरणता आदि वैराग्य भावों को उत्पत्ति होती है। जिससे साधक की कर्म एवं राग आदि दोषों से जनित दु:खों पर दृष्टि जाती है और वे दोषजनित दुःख उसे असह्य लगते हैं। यह असह्यता ही साधक को सजग बनाती है और दोषों व विकारों के निवारण के लिए कटिबद्ध करती है। पापों, दोषों की निवारक रूप साधना को भविष्य पर न टाल, वर्तमान में ही करना, साधना की गति को तीव्र करने के लिए पूर्ण सामर्थ्य से तत्पर होना अप्रमाद है।
पापों, दोषों या विकारों का अंशमात्र विद्यमान रहते हुए भी जीवन में सुख का अनुभव करना, पराधीनता में आबद्ध रहना है, जिसके परिणाम स्वरूप प्राणी को भयंकर दुःख भोगना पड़ता है। जिस प्रकार प्रत्येक बीज में अगणित वृक्ष विद्यमान हैं जो अनुकूल निमित्त पाकर प्रकट हो जाते हैं, इसी प्रकार पाप या कषाय के एक सूक्ष्म अंश में भी समस्त पाप, विकार विद्यमान हैं जो अनुकूल निमित्त मिलने पर प्रकट हो सकते हैं। अतः पाप, कषाय, विकार या असाधन का अंश मात्र भी विद्यमान रहते उनके नाश का उपाय न करना अपना घोर अहित करना है, यह महाभूल है। इस प्रकार प्रमाद साधक का महाशत्रु है। साधना में सतत सजग, अनवरत रत रहने रूप अप्रमाद ही साधक का परम कर्तव्य है। साधक को भगवान महावीर का यह सूत्र सदैव स्मरण रखना चाहिए :- 'समयं गोयम! मा पमायए' अर्थात् हे गौतम ! हे साधक ! समय मात्र का भी प्रमाद मत कर।
अकषाय :- जो भाव कर्मों का कर्षण (आकर्षण) करे वह कषाय है। कषाय का मूल है राग या आसक्ति। आसक्ति आत्मा से भिन्न पदार्थ से होती है, अत: वह पर के संग में आबद्ध करती है, पराधीन बनाती है। पराधीनता ही बंधन है। आसक्ति ही क्रोध, क्षोभ, मान, माया, प्रवंचना, लोभ, संग्रह वृत्ति आदि दोषों के रूप में प्रकट होती है। आसक्ति में पर के प्रति आकर्षण होता है। अतः आसक्ति से कर्म आदि पर-पदार्थ खिंचकर आत्मा से उसी प्रकार संबंधित हो जाते हैं जिस प्रकार चुंबक के आकर्षण से लोहा खिंचकर चुंबक से संबंधित हो जाता है। आसक्ति से ही आत्म-स्वरूप से विमुखता एवं आत्मविस्मृति होती है।
आस्रव-संवर तत्त्व
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