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निर्जरा और मोक्ष । प्रस्तुत पुस्तक में आस्रव और संवर तत्त्व का विशेष प्रतिपादन हुआ है। जीव-अजीव और पुण्य-पाप तत्त्वों की व्याख्या श्री लोढा साहब की पुस्तकें पहले ही प्रकाश में आ चुकी हैं। जीव-अजीव तत्त्व का प्रतिपादन उन्होंने विज्ञान और जैन दर्शन के आलोक में किया है। पुण्य-पाप का प्रतिपादन आगम
और कर्म सिद्धान्त को आधार बनाकर किया है। पुण्य-पाप तत्त्व' पुस्तक वर्तमान में प्रचलित मान्यताओं में संशोधन की प्रेरणा करती है। लेखक ने आगमिक प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध किया है कि पुण्य को पाप की भाँति हेय मानना उचित नहीं है। पुण्य का उन्होंने तत्त्व एवं कर्म के रूप में प्रतिदिन किया है। उन्होंने पुण्य तत्त्व को आत्म-विकास का और पुण्य कर्म को भौतिक विकास का सूचक बताते हुए प्रतिपादित किया है कि कषाय की कमी अथवा विशुद्धिभाव रूप पुण्य आध्यात्मिक विकास में सहायक बनता है तथा पुण्य तत्त्व के फल रूप में अर्जित पुण्य कर्मों के द्वारा मनुष्य आयु, पञ्चेन्द्रिय जाति, मनुष्य गति शरीर आदि के रूप में जो भौतिक सामग्री प्राप्त होती है, वह भैतिक विकास की द्योतक एवं सहायक है।
पुण्य अर्थात् विशुद्धि भाव की वृद्धि को उन्होंने पापकर्मों के क्षय में हेतु स्वीकार किया है। उनका यह सुदृढ़ मन्तव्य है कि मुक्ति में पुण्य सहायक है एवं पाप बाधक है। इस प्रकार मोक्ष की साधना में संवर और निर्जरा की भाँति पुण्य भी उपयोगी है।
प्रस्तुत पुस्तक आस्रव और संवर तत्त्व में लेखक ने आस्रव और संवर का निरूपण करते हुए यह मन्तव्य स्थापित किया है कि आस्रव और संवर तत्त्व का प्रतिपादन पाप को आधार मानकर किया गया है, पुण्य को आधार बनाकर नहीं। इसीलिए आस्रव को त्याज्य बताते समय पाप का ही आस्रव त्याज्य कहा गया है, पुण्य का आस्रव नहीं। उसी प्रकार संवर की साधना में पाप प्रवृत्ति या सावधप्रवृत्ति की ही संवर अपेक्षित होता है, पुण्य या शुभ प्रवृत्ति का नहीं। जैन दर्शन के कतिपय विद्वान् वर्तमान समय में सम्पूर्ण आस्रव को हेय एवं सम्पूर्ण संवर को उपादेय मानकर पुण्यास्रव को भी हेय की श्रेणि में स्थापित करते हैं जो कथमपि समीचीन नहीं है। जब तक मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती है तब तक पुण्य का आस्रव उपादेय ही है। मुक्ति के अनन्तर न कोई तत्त्व उपादेय रहता है न ही हेय, क्योंकि मुक्त जीव इन तत्त्वों की हेयोपादेयता से उपर उठ जाता है।
___ पुस्तक के लेखक आदरणीय लोढा साहब आगम एवं कर्म सिद्धान्त के विशेषज्ञ हैं। आप दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं के साहित्य का अनकेशः
आस्रव-संवर तत्त्व
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