________________
उपलब्धि होना है और बाह्य फल सातावेदनीय, उच्च गोत्र, शुभ नाम आदि पुण्य प्रकृतियों का उपार्जन होना भौतिक विकास एवं फल है। (पृ. ११५)
प्रस्तुत पुस्तक में लेखक द्वारा समय-समय पर लिखे गए आस्रव-संवर से सम्बद्ध ३९ लेख संकलित हैं। इनमें प्रारम्भ के २ लेख आस्रव और संवर तत्त्व के स्वरूप और आधार की विवेचना करते हैं तथा शेष लेखों को आस्रव और संवर के मिथ्यात्व-सम्यक्त्व आदि पाँच भेदों के आधार पर वर्गीकृत किया गया है। लेखों के पाँच वर्ग या खण्ड हैं- १. मिथ्यात्व-सम्यक्त्व २. अविरति- विरति ३. प्रमादअप्रमाद ४. कषाय-अकषाय ५. अशुभ-शुभ।
लोढा साहब की प्रतिपादन शैली प्रतिपाद्य विषय के मर्म को स्पर्श करती है एवं उसे विभिन्न युक्तियों के साथ स्पष्ट करने हेतु सन्नद्ध रहती है। आपने सम्यग्दर्शन और मिथ्यात्व का आगमिक विशेषण प्रस्तुत करते हुये मिथ्यात्व के दश प्रकार का आध्यात्मिक विवेचन किया है। उन्मार्ग को सन्मार्ग मानने के रूप मिथ्यात्व की विवेचना करते हुए आपने लिखा है
__ "विषय-विकारों एवं भोगों के त्याग के लक्ष्य से की गई प्रवृत्ति सन्मार्ग है और विषय-भोगों की प्राप्ति के लिए की गई प्रवृत्ति-निवृत्ति (त्याग-तप) उन्मार्ग है। उन्मार्ग को सन्मार्ग मानना मिथ्यात्व है।"... "करुणा, दया, दान, वैयावृत्य, सेवा, परोपकार, नमस्कार, मृदुता, मित्रता आदि समस्त सत्प्रवृत्तियों को पुण्य बन्ध का हेतु कहकर इन्हें संसार परिभ्रमण का कारण मानना सन्मार्ग को उन्मार्ग मानने रूप मिथ्यात्व है। कारण कि प्रथम तो पुण्य कर्म की समस्त ४२ प्रकृतियाँ पूर्ण रूप से अघाती हैं। अर्थात् इनसे जीव के किसी भी गुण का अंश मात्र भी घात नहीं होता, अतः ये अकल्याणकारी है ही नहीं। द्वितीय, कर्म सिद्धान्त का यह नियम है कि पुण्य का उत्कर्ष, परिपूर्ण होने के पूर्व यदि साता वेदनीय, उच्च गोत्र, आदेय, यश कीर्ति, मनुष्य गति, देवगति आदि पुण्य-प्रकृतियों का आस्रव और बन्ध नहीं होता है तो असाता वेदनीय, नीच, गोत्र, अनादेय, अयशकीर्ति, नरक गति, तिर्यंच गति आदि पाप प्रकृतियों का आस्रव और बन्ध अवश्य होता है। अतः पुण्य के आस्रव का निरोध व विरोध करना पाप के आस्रव व बन्ध का आह्वान व आमन्त्रण करना है। जो घोर मिथ्यात्व है। तृतीय, दया, दान आदि सद्प्रवृत्तियों से पुण्य का जितना उपार्जन होता है, उससे अनंत गुणा पुण्य के अनुभाग का सर्जन
आस्रव-संवर तत्त्व
[103]