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वैराग्य की तीव्रता से सजगता आती है। सजगता से राग, कषाय या आसक्ति जनित आकुलता असह्य हो जाती है, जिससे साधक कषाय रहित होने का प्रयत्न करता है। कषाय रहित होना व कषाय की तीव्रता कम करना संवर है।
शुभयोगः - मन, वचन, काया के योगों की पाप रूप प्रवृतियाँ अशुभ योग हैं। योग पूर्वबद्ध कर्मों के उदय के माध्यम हैं व नवीन कर्म बांधने के साधन भी हैं। अशुभयोगों से, दुष्प्रवृत्तियों से अशुभ संस्कारों रूप पाप कर्मों का बंध होता है। जो दुःख का हेतु होने से असाधन रूप है एवं त्याज्य है।
संवर और निर्जरा की क्रियात्मक साधना, चारित्र पालना', मन, वचन, काया के योगों की प्रवृत्तियों पर ही निर्भर है। मन, वचन, काया के योगों के अभाव में संवर और निर्जरा की विधिपरक साधना, साधुचर्या संभव ही नहीं है। अतः मन, वचन, काया के जिन योगों से संयम पालन हो, तप हो, अर्थात् संवर-निर्जरा हो, वे शुभयोग हैं। शुभयोग विषय-कषाय की तीव्रता को कम करने वाले और वैराग्य वृत्ति को बढ़ाने वाले होने से संवर हैं।
व्रत या संयम धारण करना, संवर का समन्वित या क्रियात्मक रूप है। संयम में सम्यक्त्व, विषय-कषाय से विरक्ति, शुभयोग एवं सजगता समन्वित है, अतः 'शुभयोग' संवर का द्योतक है। ३. पुण्य : शुभयोग
साधना का तीसरा अंग 'पुण्य' या शुभयोग है। 'पुनाति आत्मानम् इति पुण्यम्' अर्थात् जो आत्मा को पवित्र करे, वह पुण्य है। आत्मा मैली होती है कषाय के कलुष से । अतः जिससे कषाय में मंदता आवे, वह पुण्य है। पुण्य का आधार है-आत्मीय भाव। आत्मीय भाव से प्राणी पर-पीड़ा से पीड़ित होता है, जिससे उसके हृदय में करुणा भाव उदित होता है जो सेवाभाव में परिणत हो जाता है। अन्न, जल, वस्त्र, पात्र आदि देकर पर-पीड़ा दूर करना तथा मन, वचन, काया से हितकर व्यवहार कर, सेवा करना पुण्य है। 'शुभ : पुण्यस्य' सूत्र के अनुसार शुभ प्रवृत्तियाँ अथवा शुभयोग ही पुण्य का कारण है।
अशुभ प्रवृत्तियाँ पाप हैं और शुभ प्रवृत्तियाँ पुण्य हैं। सुखभोग की लालसा ही समस्त अशुभ प्रवृत्तियों की जननी है जो स्व-पर के लिये अहितकर है तथा असाधन रूप है। सुखभोग की लालसा ही स्वार्थभाव को जन्म देती है। स्वार्थभाव से भावित कर्म से हिंसा, झूठ, शोषण, दुराचार, संग्रह वृति, विषमता, संघर्ष, वैर,
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जैनतत्त्व सार