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प्रो. सागरमल जैन ने विद्वत्तापूर्ण भूमिका लिखकर जहाँ इस कृति को सुगम बनाया है वहाँ इसके महत्त्व का भी प्रतिपादन किया है। प्रो. जैन का यह स्पष्ट मन्तव्य है कि पुण्य न बन्धनकारी है और न हेय, अपितु उसके साथ रहा हुआ कषाय, ममत्व, आसक्ति या फलाकांक्षा बन्धनकारी है, जो त्याज्य है।
आशा है विद्वद्वर्य पं. कन्हैयालालजी लोढ़ा की यह कृति सभी जैन सम्प्रदायों में अध्ययन का विषय बनेगी एवं इससे विचारों को नई दिशा मिलेगी।
पुण्य-पाप तत्त्व
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