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आस्रव-संवर तत्त्व
आस्रव-संवर तत्त्व का स्वरूप और विवेचन
आस्रव-जिससे कर्म आवे, उसे आस्रव कहते हैं । जिस प्रकार तालाब में जल आने का मार्ग या नाली आस्रव कहलाती है, इसी प्रकार कर्म, मन-वचन-काया के योग द्वारा आते हैं। इसलिये योगों को आस्रव कहा गया है । यथा
कायवाङ् - मनः कर्म योगः । स आस्रवः । तत्त्वार्थ सूत्र अ. ६ सूत्र १-२
अर्थात् काय, वचन और मन की क्रिया ( प्रवृत्ति) योग है। वह (योग ही) आस्रव है। मन-वचन-काया की प्रवृत्ति से आत्म-प्रदेशों में स्पंदन होता है। यह स्पंदन ही आस्रव है। आत्म-प्रदेशों में स्पंदन होने से वहाँ स्थित आकाश से कर्मवर्णणाएँ आकर्षित होती हैं और उनका आत्मा से संयोग हो जाता है, वे जुड़ जाती हैं । इस जोड़ को योग व आस्रव कहा जाता है।
आस्त्रव दो प्रकार का है -
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'शुभः पुण्यस्य । अशुभः पापस्य ।'
तत्त्वार्थ सूत्र अ. ६ सूत्र ३-४
अर्थ- आस्रव दो प्रकार के हैं - (१) पुण्यास्रव और (२) पापास्रव । शुभ योग पुण्य का आस्रव है और अशुभ योग पाप का आस्रव है।
जैतत्त्व