________________
(१) कहणं भंते, जीवा गरुयत्तं हव्वमागच्छंति? गोयमा, पाणाइवाएगणं मुसावाएणंअदि० मेहण० मायामोसमिच्छादसणसल्लेणं,एणंखलुगोयमा,जीवा गुरुयत्तं हव्वमागच्छंति। कह ण भते, जीवा लहुपत्तं हव्वमागच्छन्ति? गोयमा, पाणाइवायवेरमणेणं एवं संसारं आउलीकरेंति एवं परित्तीकरेंति दीहीकरेंति हस्सीकरेंति एवं अणुपरियट्टेति एवं वीइवयंति। पसत्था चत्तारि अप्पसत्था चतारि।।- भगवतीशतक १, उ. ९ सूत्र ७२ तथा शतक १२, उद्देशक २ सूत्र ४४२
अर्थ-भगवन, जीव किस प्रकार गुरुत्व-भारीपन को प्राप्त होते है? गोतम, प्राणतिपात, मृषावाद आदि आदि अठारह पापों का सेवन करने से जीव शीघ्र गुरुत्व को प्राप्त होते हैं। भगवान्, जीव किस प्रकार लघुत्व को प्राप्त होते है? गोतम, प्राणातिपात आदि अठारह पापों के त्याग से शीघ्र लघुत्व (हलकापन) को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार प्राणातिपात आदि पापों को सेवन करने से जीव (१) गुरुत्व को प्राप्त होते हैं, (२) संसार को बढ़ाते हैं, (३) संसार को लम्बे काल का करते हैं और (४) बार-बार भव-भ्रमण करते हैं तथा प्राणातिपात आदि पापों का त्याग करने से जीव (१) लघुत्व को प्राप्त करते हैं, (२) संसार को घटाते हैं, (३) संसार को अल्पकालीन करते हैं और (४) संसार को पार कर जाते हैं। इनमें से चार (हलकापन आदि) प्रशस्त हैं और चार (भारीपन आदि) अप्रशस्त हैं।
असुहादो विणिवित्तिं, सुहे पवित्तिं, य जाण चारित्तं। अर्थात् – अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति को चारित्र समझो।
पुण्य-पाप तत्त्व पुस्तक में 'पाप ही त्याज्य है, पुण्य नहीं' इसके प्रमुख रूप में पृष्ठ १६ से २३ तक उत्तराध्ययन सूत्र के अध्ययन २९, ३०, ३१, ६, ९, १४, १९ की, दशवैकालिक सूत्र के अध्ययन ४,६,८ की, सूत्रस्थानांग, सूत्र कृतांग, औपपातिक आदि की लगभग ४० से अधिक गाथाएँ उद्धरण और उदाहरण के रूप में प्रस्तुत की है। जो पठनीय एवं मननीय है। आशय यह है कि उत्तराध्ययन सूत्र के तीसवें अध्ययन में तप से (राग-द्वेष से उत्पन्न) पाप कर्मों का क्षय होता है, कहा है। इकतीसवें अध्ययन में चारित्र से पाप कर्मों के आस्रव का निरोध एवं भव-भ्रमण (जन्म-मरण) का अंत होना कहा है।
चारित्र, तप आदि किसी भी साधना से पुण्यास्रव का निरोध एवं पुण्य कर्मों के अनुभाग (फल) का क्षीण होना नहीं कहा है। अर्थात् (पुण्य) को कहीं भी त्याग नहीं कहा है।
पुण्य-पाप तत्त्व
[41]