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(१५) पुण्य का अनुभाग बढ़कर चतुःस्थानिक हुए बिना सम्यम्दर्शन और
उत्कृष्ट हुए बिना केवलज्ञान नहीं होता है। अतः पुण्य आत्म-विकास में, साधना में बाधक व हेय नहीं है।
यह तो हमने पण्डित प्रवर लोढ़ा जी की स्थापनाओं का संक्षिप्त झलक दी है। उन्होंने प्रस्तुत कृति के अन्त में ऐसे एक सौ अठारह तथ्य प्रस्तुत किये हैं, जो पुण्य की उपादेयता को सिद्ध करते हैं। वस्तुतः उनकी ये स्थापनाएँ किसी पक्ष-विशेष के खण्डन-मण्डन की दृष्टि से नहीं, अपितु जैन कर्म सिद्धान्त के ग्रंथों के गंभीर आलोडन का परिणाम है। वे मात्र विद्वान् नहीं है, अपितु साधक भी हैं। उनके द्वारा इस कृति की रचना का प्रयोजन उनके अन्तस् में प्रवाहमान करुणा की अजस्रधारा ही है। उनका प्रतिपाद्य मात्र यही है कि धर्म और आध्यात्मिकता के नाम पर सेवा और करुणा की सदप्रवृत्तियों का समाज से विलोप नहीं हो। क्योंकि मनुष्य की मनुष्यता इसी में है कि वह दूसरे प्राणियों का रक्षक बने, उनके सुख-दुःख का सहभागी बने। ___वस्तुत: मैं पूज्य लोढ़ाजी का अत्यन्त आभारी हूँ कि उन्होंने भूमिका लेखन का दायित्व मुझे देकर उनकी इस गहन गंभीर तात्त्विक कृति में अवगाहन का अवसर दिया।
आमुख (पुण्य-पाप तत्त्व पुस्तक से उद्धृत संपादकीय)
___- धर्मचन्द्र जैन क्या 'पुण्य' भी 'पाप' की भाँति हेय है? यह एक यक्ष प्रश्न है, जिसका समाधान तत्त्वमनीषी पं. कन्हैयालाल जी लोढ़ा ने अपनी इस कृति में श्वेताम्बर एवं दिगम्बर स्रोतों के आधार पर प्रस्तुत करने का महनीय प्रयास किया है। लेखक ने पुण्य तत्त्व को विशुद्धिभाव के रूप में निरूपित करते हुए उसे कर्मक्षय एवं मुक्तिप्राप्ति में सहायक माना है, जबकि पाप को मुक्ति में बाधक प्रतिपादित किया है। लेखक ने पुण्य को सोने की बेड़ी नहीं, अपितु आभूषण बताया है।
कुछ लोग जैन धर्म की यह विशेषता मानते हैं कि इसमें पुण्य को भी हेय कहा गया है। यह सच है कि सिद्धावस्था में न पुण्य रहता है और न पाप। किन्तु इससे पुण्य को पाप की भांति हेय नहीं कहा जा सकता। साधक के लिए पुण्य उसी प्रकार उपादेय है, जिस प्रकार कि संवर एवं निर्जरा। पुण्य की उपादेयता को
पुण्य-पाप तत्त्व
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