________________
(७)
पण्य
के
आदि प्रवृत्ति करते हैं। अतः पुण्य कभी भी त्याज्य नहीं है, वह सदैव ही उपादेय है। पुण्य केवल आस्रव या बंध रूप नहीं है, अपितु संवर और निर्जरा
रूप भी है, अतः पुण्य हेय नहीं उपादेय है। (८) पुण्य-पाप कर्म का संबंध उनकी फलदान शक्ति-अनुभाग से है,
स्थिति बंध से नहीं है।
जैन दर्शन में वीतरागता की उपलब्धि के लिए रागादि पापों को ही त्याज्य कहा है, पुण्य को नहीं। अतः आस्रव, संवर, निर्जरा, मोक्ष
आदि तत्त्वों भेद-उपभेद का प्रतिपादन पाप को लक्ष्य में रखकर ही
क्रिया है, पुण्य को लेकर नहीं। (१०) जैन कर्म-सिद्धान्त में जीव के स्वभाव व गुण का घातक घाती
कर्मों को ही कहा है, अघाती कर्मों को नहीं। अघाती कर्मों की असाता वेदनीय, नीच गोत्र, अनादेय, अयशकीर्ति आदि पाप प्रकृतियों की सत्ता भी जीव के केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि किसी भी गुण की उपलब्धि में बाधक नहीं है। अतः पुण्य प्रकृतियों को जीव के किसी भी गुण की उपलब्धि में एवं वीतरागता में बाधक
मानना सिद्धान्त विरुद्ध है। (११) पुण्य-पाप दोनों विरोधी हैं। अतः जितना पाप घटता है उतना ही
पुण्य बढ़ता है। पुण्य के अनुभाग की वृद्धि पाप के क्षय की सूचक है। पुण्य के अनुभाग के घटने से पाप कर्मों के स्थिति और अनुभाग
बंध नियम से बढ़ते है। (१२) पुण्य के अनुभाग का क्षय किसी भी साधना के यहाँ तक कि केवल
समुद्घात से भी नहीं होता है। (१३) चारों अघाती कर्मों की पुण्य प्रकृतियों का उपार्जन चारों कषायों के
घटने से व क्षय से होता है। (१४) पुण्य त्याज्य नहीं है, पुण्य के साथ रहा हुआ फलाकांक्षा निदान,
भोक्तृत्वभाव कर्तृत्वभाव रूप कषाय व पाप त्याज्य है। जैसे गेहूँ के साथ रहे हुए कंकर-मिट्टी एवं भूसा त्याज्य हैं, गेहूँ त्याज्य नहीं है।
[56]
जैनतत्त्व सार