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वह राग-द्वेष (कषाय) एवं फलांकांक्षा की सत्ता होने पर ही होगा, उनका अभाव होने पर बंधन नहीं होगा। जैन कर्म सिद्धान्त का यह शाश्वत नियम है कि किसी भी कर्म का स्थिति बंध कषाय के कारण है। अत: वीतराग दशा की प्राप्ति पर शुभ कर्म या पुण्य कर्म अकर्म बन जाते हैं, वे बंधन नहीं करते हैं। अतः त्याज्य कषाय है न कि पुण्य कर्म। आत्मा की शुद्ध दशा की प्राप्ति अर्थात् शुद्धपयोग में उपस्थिति कषाय के अभाव में ही संभव है अतः उसकी प्राप्ति के लिए 'कषाय का त्याग आवश्यक है न कि पुण्य प्रवृत्ति का। वस्तुत: जब राग-द्वेष (कषाय) एवं फलाकांक्षा समाप्त हो जाती है तब वह शुभकर्म अकर्म बन जाता है। कषाय चाहे अधिक हो या अल्प, वह त्याज्य है, वह पापरूप ही है, क्योंकि वह बन्धन का कारण ही है। आदरणीय कन्हैयालाल जी लोढा का यह कथन शत प्रतिशत सही है कि मन्द कषाय पापरूप है, किन्तु कषाय की मन्दता पुण्य रूप है। कषाय में जितनी मन्दता होगी, पुण्यप्रभार उतना ही अधिक होगा। पुण्य प्रवृत्तियाँ जब भी होती हैं, वे कषाय की मन्दता में ही होती है। अतः कषाय चाहे वह मन्द ही क्यों न हो, त्याज्य है, किन्तु कषाय की मन्दता उपादेय है, क्योंकि साधक कषाय को मन्द करते-करते अन्त में वीतराग दशा को उपलब्ध हो जाता है और जब वह वीतराग दशा को उपलब्ध हो जाता है तो उसकी स्वाभाविक रूप से नि:सृत होने वाली लोकमंगलकारी पुण्य प्रवृत्तियाँ बन्धन कारक नहीं होती हैं। वे त्याज्य नहीं, अपितु उपादेय ही होती हैं। बंधन पुण्य प्रवृत्तियों से नहीं होता है, बन्धन तो व्यक्ति की निदान बुद्धि या फलाकांक्षा से होता है अथवा कषाय की उपस्थिति से होता है। गुणस्थान सिद्धान्त के अनुसार भी कर्मबंध दसवें गुणस्थान तक ही संभव है, क्योंकि दसवें गुणस्थान में संज्वलन लोभ (सूक्ष्म लोभ) की सत्ता है। ग्यारहवें गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक लोकमंगल की प्रवृत्तियों के फलस्वरूप जो द्वि-समय का ईर्यापथिक सातावेदनीय कर्म का बंध होता है वस्तुतः वह बंधन नहीं है। अतः पुण्य रूप सद्प्रवृत्तियाँ बन्ध रूप नहीं है अतः वे हेय नहीं उपादेय हैं । हेय तो कषाय हैं, जो पाप रूप हैं। प्रस्तुत कृति में पं० कन्हैयालाल जी लोढ़ा ने पुण्य प्रवृत्तियों की उपादेयता को सप्रमाण सिद्ध किया है। उनके मुख्य प्रतिपाद्य बिन्दु निम्न हैं(१) पुण्यतत्त्व और पुण्य कर्म में अन्तर है। चाहे पुण्यकर्म बंधन के
निमित्त हों, किन्तु पुण्यतत्त्व बन्धन का निमित्त नहीं है। पुण्यकर्म क्रिया पुण्यतत्त्व उपयोग रूप है, शुभ आत्म परिणाम रूप है जो
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जैनतत्त्व सार