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से साधु, रोगी, बालक, वृद्ध एवं असहाय लोगों की सेवा करना काय पुण्य है । सब प्राणियों के प्रति नम्रता का व्यवहार करना नमस्कार पुण्य है ।
उपर्युक्त सद्प्रवृत्तियों में दूसरों के हित के लिए अपने विषय सुखों की स्वार्थपरता का त्याग करना होता है। त्याग से आत्मा का उत्थान होता है, आत्मा पवित्र होती है । अत: इन्हें पुण्य कहा जाता है । यही कारण है कि जितना संयम, त्याग, तप बढ़ता जाता है, उतनी ही पुण्य के अनुभाग में वृद्धि होती जाती है । पुण्य के विभिन्न रूप
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पुण्य शब्द का प्रयोग अनेक रूपों में होता है यथा- पुण्यतत्त्व, पुण्य भाव, पुण्यप्रवृत्ति, पुण्य आस्रव, पुण्य कर्मों का बंध ( प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेश), पुण्य का फल आदि । आगे इन्हीं का संक्षेप में विवेचन किया गया है।
पुण्यतत्त्व- जिन भावों एवं क्रियाओं से आत्मा पवित्र होती है उन्हें पुण्य कहते हैं । यह पुण्यतत्त्व दो प्रकार का होता है यथा- भावात्मक और क्रियात्मक । भावात्मक पुण्यतत्त्व - जिन भावों से आत्मा पवित्र होती है वे भावात्मक पुण्य हैं । आत्मा पवित्र होती है कषाय में कमी होने से; अहिंसा, संयम, तप, त्याग से, विषयों के प्रति वैराग्य से और करुणा, अनुकंपा आदि भावों से। ये सब भाव आत्मा को पवित्र करने वाले होने से पुण्य रूप हैं।
क्रियात्मक पुण्यतत्त्व - कषाय की कमी से आविर्भूत क्षमा, सरलता, विनम्रता, उदारता आदि गुणों का क्रियात्मक रूप मैत्री, अनुकंपा, दया, वात्सल्य, वैयावृत्त्य, परोपकार, दान, सेवा-सुश्रूषा आदि समस्त सद्प्रवृत्तियाँ पुण्य तत्त्व की क्रियात्मक रूप हैं। क्योंकि इन सबसे पाप कर्मों का क्षय एवं पुण्य का उपार्जन होता है ।
पुण्यास्रव - सद्भावों एवं सद्प्रवृत्तियों से मनुष्य गति, पंचेन्द्रिय जाति, शरीर आदि पुण्य प्रकृतियों के कर्म दलिकों का जो उपार्जन होता है, यह पुण्य का आस्रव कहा जाता है।
पुण्य कर्म का बंध- पुण्य कर्म का बंध चार प्रकार का है - (१) प्रकृतिबंध (२) स्थितिबंध (३) अनुभागबंध और (४) प्रदेशबंध। यथा
प्रकृतिबंध- पुण्य प्रकृतियां आठ कर्मों में से वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र इन चार कर्मों की ही होती है, यथा-वेदनीय कर्म की साता वेदनीय, आयु कर्म की तिर्यंच - मनुष्य- देव आयु, गोत्र कर्म की उच्च गोत्र तथा नाम कर्म की मनुष्य गति,
पुण्य-पाप तत्त्व
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