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ही बन्ध तत्त्व में अन्तर्भूत है क्योंकि बंध का कारणभूत काषायिक अध्यवसाय (परिणाम) ही भाव बंध है।
पंडितजी ने उपर्युक्त विवचेन में संक्लेश की मन्दता को पुण्य के आस्रव का और तीव्रता को पाप के आस्रव का हेतु कहा है। कर्म सिद्धान्त में कषाय की मंदता को विशुद्धि और कषाय की वृद्धि को संक्लेश कहा है यह संक्लेश-विशुद्धि दशवें गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में, प्रत्येक लेश्या में, प्रत्येक असंयम-संयम (चारित्र) आदि सब अवस्थाओं में संभव है, जैसा कि भगवतीसूत्र के शतक २५ उद्देश्यक ७ में कहा है
कंइणं भंते! सुहुमसंपराया पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते - तंजहासंकिलिस्समाणए य विसुद्धमाणए य । अर्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! सूक्ष्म संपराय संयत कितने प्रकार के होते हैं? उत्तर- हे गोतम, दो प्रकार के होते हैं यथासंक्लिश्यमानक और विशुद्धय-मानक । क्योंकि ये हीयमान और वर्द्धमान परिणाम वाले होते हैं। इससे स्पष्ट है कि संक्लेश शब्द हीयमान परिणामों का कषाय वृद्धि का सूचक है और विशुद्धि शब्द वर्द्धमान परिणामों का, कषाय की मंदता का सूचक है। नवें गुणस्थान से चढ़ते समय दशवाँ गुणस्थान विशुद्ध्यमान कहलाता है और ग्याहरवें गुणस्थान से गिरते समय दशवाँ गुणस्थान संक्लिश्यमान कहलाता है ।
कर्मों का शुभत्व - अशुभत्व उनके शुभ-अशुभ फल पर अवलंबित है । शुभ फल देने वाले कर्म-अशुभ (पाप कर्म ) कहे जाते हैं । कर्म का फल कर्म - प्रकृति के अनुभाव ( अनुभाग) पर अवलंबित होता है । अतः कर्म के अनुभाव पर ही पाप-पुण्य कर्म का निर्धारण होता है- जैसा कि ऊपर पं. सुखलाल जी ने कहा है तथा इसी का प्रतिपादन तत्त्वार्थ सूत्र अ० ६ के सूत्र ३-४ की राजवार्तिक टीका में यह कहकर किया है कि पुण्य-पाप का संबंध अनुभाग से है। स्थिति बंध से नहीं है। शुभ अनुभाग की वृद्धि कषाय में कमी होने से होती है। पुण्य का आम्रव शुद्धोपयोग से और पाप का आस्रव अशुद्धोपयोग से होता है, यही कषायपाहुड की जयधवला टीका पुस्तक १ में स्पष्ट कहा है यथा
पुण्णासवभूदा अणकंपा सुद्धओ य उपजोओ। विवरीओ पावस्स हु आसवहेउं वियाणाहि ।।
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कसायपाहुड, जयधवलटीका, पुस्तक १, पृ. ९६
जैतत्त्व सा