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भूमिका हैं । इस त्रुटि के कारण प्रतिलिपियों तथा मूल के समय निर्धारण में कठिनाई होती है। हशमते काश्मीर की एक पाण्डुलिपि काशी विद्यापीठ में है। दूसरी एशियाटिक सोसाइटी में है। यह निर्णय करना कठिन है कि कौन मूल है।
नामवाचक शब्द : व्यक्ति तथा स्थानवाचक नामों को इटालिक या सादे टाइप अथवा पद के टाइपों से भिन्न देने की प्रथा श्री स्तीन ने अपने कल्हण राजतरंगिणी संस्करण सन् १८९२ ई० में चलाई है। उसका अनुकरण श्री कण्ठ कोल मुद्रित संस्करण में किया गया है। मैंने मूल का अनुकरण किया है। मूल में एक ही अक्षरों को जिस प्रकार लिखा गया है, उसी प्रकार दिया है। भिन्न अक्षरों में नाम देने से पढ़ने तथा खोजने में सुविधा होती है। उसका समाधान अन्त में दिये नामानुक्रमाणिका से हो जाती है। एक ही पद में भिन्न अक्षरों के प्रयोग से शंका हो सकती है कि मूल लेखक ने भी यह आधुनिक शैली अपनायी थी। मूल अपने मूल रूप में पाठकों के सम्मुख उपस्थित किया जाय। इस दृष्टि से चाहकर भी व्यक्ति तथा स्थानवाचक नामों को भिन्न अक्षरों ने नहीं दिया है। सर्वश्री स्तीन तथा श्री कण्ठ कौल ने नामानुक्रमणिका नहीं दिया है अतएव भिन्न अक्षर शैली मुद्रण से नाम पढ़ने या पूछने में कुछ सुविधा हो जाती है ।
संस्कृत लेखकों ने मुसलिम नामों को संस्कृत में लिख कर उनका किंचित सन्धि-समास आदि की दृष्टि से संस्कृतीकरण कर दिया है। फारसी तथा अरबी नामों का उच्चारण भिन्न-भिन्न कालों में भिन्न रूपों में होने लगा था। अरबी तथा फारसी ने कुछ अपभ्रंश का रूप ले लिया था। यही कारण है कि एक ही नाम का अक्षरविन्यास भिन्न-भिन्न ग्रन्थकारों ने भिन्न-भिन्न रूप से किया है। उनके वास्तविक नामों को पाद-टिप्पणियों में देने का प्रयास किया है । कुछ लेखकों ने नाम के इस भेद में भी पाठभेद खोजकर अपने परिश्रम की सार्थकता प्रकट करने की कोशिश की है।
संशोधन : कलकत्ता संस्करण में खण्डाकार 'ड' का प्रयोग किया गया है। सर्वश्री स्तीन तथा दुर्गा प्रसाद ने '5' का प्रयोग नहीं किया है । मूल का अनुकरण किया है । कलकत्ता और स्तीन के कल्हण तरंगिणी संस्करण में ३५ वर्षों का अन्तर है। मालूम होता है । बंग पण्डितों ने खण्डाकार '' आधुनिक शैली के अनुसार जोड़ दिया है।
कलकत्ता संस्करण में '' है, अतएव उसे यथावत् रखा गया है। कलकत्ता संस्करण में 'व' तथा 'ब' के भेद का ध्यान नहीं रखा गया है । 'ब' तथा 'भ' में भी भेद कम किया गया है। उसे प्रस्तुत संस्करण में सुधार लिया है। इसी प्रकार 'श' तथा 'स' एवं 'ष' तथा 'ख' में तत्कालीन लौकिक उच्चारण के आधार पर पाठ कहीं-कहीं मिलता है। उसे भी सुधारा गया है। 'मीर' का 'मेर' 'ज' का 'ज्ज' 'ज्य' लिखा मिलता है। उसे ठीक कर लिया है। श्लोक के अन्त में आये अनुस्वार को "म्" के रूप में कर दिया गया है, क्योंकि यही पूर्ण शुद्ध है। मुसलिम नामों का संस्कृतीकरण श्रीवर ने किया है। उन्हें उनके मूल रूप में रखने का प्रयास अनुवाद तथा कहीं-कहीं पाठ में किया है।
मुद्रण की अशुद्धियाँ तत्कालीन मुद्रण को प्रारम्भिक अवस्था के कारण हुई हैं। मुद्रणकला आज उन्नत है । अतएव मुद्रण की त्रुटियों का आधुनिकीकरण किया गया है। उन्हें पाठभेद मानना संगत नहीं है। तत्कालीन मुद्रण प्रणाली दोषी नहीं है। व्याकरण की दृष्टि से जो अशुद्धियां मिली है, उन्हें यथासम्भव ठीक किया है।