Book Title: Jain Raj Tarangini Part 1
Author(s): Shreevar, Raghunathsinh
Publisher: Chaukhamba Amarbharti Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ जैनराजतरंगिणी है। कलकता संस्करण मूल के अत्यन्त समीप है। पुरानी संस्कृत शैली स्वीकार की गयी है। मूल जैसा प्राप्त था, उसे बंगदेशीय पण्डितों के सहयोग से एशियाटिक सोसाइटिक ने बैयटिस्ट मिशन प्रेस कलकत्ता में मुद्रित कराया था । मुद्रण कला आज से १५० वर्ष उतनी विकसित नहीं थी, जितनी आज है । अतएव कुछ त्रुटियाँ मुद्रण के कारण रह गयी हैं । परन्तु वे नगण्य हैं । दुर्गा प्रसाद जी ने अपने संस्करण में कुछ सुधार किया है। किन्तु खण्डाकार 'अ' का उन्होंने प्रयोग नहीं किया है, जो कलकत्ता संस्करण में है । 'श' तथा 'स' 'व' तथा 'व' तथा 'ब' व तथा 'व' के कारण अनेक त्रुटियाँ परिलक्षित होंगी। । । प्रस्तुत ग्रन्थ का पाठ कलकत्ता संस्करण पर आधारित है । बम्बई संस्करण से सहायता ली गयी है | जहाँ श्री दुर्गा प्रसाद ने पाठ शुद्ध या सुधार किया है, उसे यथास्थान स्वीकार किया है । कलकत्ता संस्करण में पंक्तियों की संख्या दी गयी है श्लोक संख्या नहीं है । संस्कृत मूलग्रन्थों में श्लोक संख्या नहीं मिलती । मैंने अनेक पाण्डुलिपियाँ देखी हैं उनमें श्लोकों की क्रम संख्या पूर्वापर का विचार कर विद्वानों ने कहींकहीं दो तथा कहीं तीन पदों की श्लोक संख्या से बना दी है । उनके कारण प्रकाशित ग्रन्थों की श्लोक संख्याओं में अन्तर पड़ना स्वाभाविक है । कल्हण राजतरंगिणी में सर्वश्री स्तीन तथा दुर्गा प्रसाद ने श्लोकों की क्रम संख्या दी है। श्रीवर का संस्करण स्तीन ने नहीं किया है। अतएव दुर्गा प्रसाद ने ही सर्वप्रथम स्लोकों की क्रम संख्या दी है। श्री दत्त ने श्रीवर का अनुवाद किया है। उनमें न तो श्लोक संस्था दी गयी है और न श्लोकानुसार अनुवाद किया गया है। उसे छायानुवाद कह सकते श्री कण्ठ कौल संस्करण तथा प्रस्तुत संस्करण में कुछ स्थानों में व्यतिक्रम है । उनका यथास्थान संकेत किया हैं। मैंने भारत में प्राप्य पाण्डुलिपियों से सहायता ली है । उन पाण्डुलिपियों को न तो महत्व दिया है और न आधार माना है, जो सन् १८३५ ६० के पश्चात् की हैं। हाय से प्रतिलिपि करने में मूल की जितनी बार प्रतिलिपि की जायगी, उतनी बार उसमें कुछ न कुछ त्रुटि रह जायगी । कलकत्ता संस्करण के पश्चात् की प्रतिलिपियाँ कलकत्ता संस्करण की प्रतिलिपि मात्र हैं। काशी में आज भी रामायणी लोग हाथ से लिखी साची पत्रारूप में रामायण की प्रतिलिपि स्वयं या करा कर पढ़ते हैं । हैं । श्लोक के पदों की क्रम संख्या में राजतरंगिणी का महत्व बढ़ा तो हाथ से बने कागज पर देशी कलम और स्पाही से प्रतिलिपियाँ लिखी गयीं । उन्हें मूल पाण्डुलिपि करार देकर, बेचा तथा प्रयोग किया गया है। वे अनेक पुस्तकालयों की शोभा है। काशी में ही इस प्रकार की कम से कम तीन पाण्डुलिपियाँ वर्तमान हैं। तत्कालीन संस्कृत तथा उसकी लेखन शैली को बदलकर उसे आधुनिक संस्कृत का कलेवर देना अनुचित है । इसका अधिकार मुझे या किसी लेखक को नहीं होना चाहिए। मूलरूप नष्ट हो जाता है । अर्थ एवं भाषा की दृष्टि से सुधार ही जाता है। परिवर्तन, संशोधन एवं परिवर्धन से तत्कालीन संस्कृत रूप तथा उसकी पौली का बोध नहीं होता। वास्तविक स्थान पाद-टिप्पणी किवा पाठभेद में होना चाहिए। मैंने इनका उल्लेख पाद-टिप्पणियों में किया है। कलकत्ता तथा बम्बई संस्करणों की पंक्तियों तथा लोकों की क्रम संख्या स्थान-स्थान पर दे दिया है। अनुसन्धानकर्त्ताओं एवं लेखकों को कलकत्ता एवं बम्बई संस्करणों से सन्दर्भ प्राप्ति में कठिनाई नहीं करनी पड़ेगी । , संस्कृत ही नहीं फारसी पाण्डुलिपियों में भी यही बात घटी है। एक ही ग्रन्थ की अनेक पाण्डुलिपियाँ विश्व में बिखरी हैं। हाथ से लिखने के कारण उनमें कुछ न कुछ अन्तर पड़ जाता है। भी निर्णय करना कठिन होता है । प्रतिलिपिकार प्रायः प्रतिलिपि का समय न देकर फोन मूल है, यह मूल का समय देते

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 ... 418