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पूज्य श्री पीयूषसागर जी म.सा. की सतत् प्रेरणा मुझे मिलती रही है। उनके प्रेरणाबल की चर्चा कर मैं उनके प्रति अपनी आत्मीय श्रद्धा को कम नहीं करना चाहती हूँ। ग्रंथ प्रकाशन के इन क्षणों में संयम प्रदाता प.पू. हर्षयशाश्रीजी म.सा. का उपकार भी मैं कैसे भूल सकती हूँ, जिनकी भाव वत्सलता से मेरे जीवन का कण-कण आप्लावित है, वे मेरी दीक्षा गुरु ही नहीं वरन् शिक्षा गुरु भी है। अनुवाद के प्रकाशन में उनका जो आत्मीय सहयोग मिला वह मेरे प्रति उनके अनन्य वात्सल्य भाव का साक्षी है। ग्रन्थ प्रकाशन के इन सुखद क्षणों में आगममर्मज्ञ मूर्धन्य पंडित डॉ. सागरमलजी सा. का भी उपकार भूलाना कृतघ्नता ही होगी, उन्होंने हर समय इस अनुवाद कार्य में मेरी समस्याओं का समाधान किया तथा निराशा के क्षणों में मेरे उत्साह का वर्धन किया। अल्प समय में इस गुरुतर ग्रंथ का अनुवाद का कार्य आपके दिशा-निर्देश एवं सहयोग के बिना शायद ही सम्भव हो पाता।
साधु-साध्वियों के अध्ययन, अध्यापन एवं शोध हेतु पूर्ण समर्पित डॉ. सागरमलजी जैन द्वारा स्थापित प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर द्वारा प्रदत्त आवास, निवास और ग्रन्थागार की पूरी सुविधाएँ भी इस कार्य की पूर्णता में सहायक रही है। श्री श्वेताम्बर जैन श्रीमाल सभा, जयपुर के ट्रस्टीगण भी धन्यवाद के पात्र है, जिनके अर्थ सहयोग से ग्रन्थ का प्रकाशन कार्य संभव हो सका है।
अन्त में उन सभी प्रत्यक्ष एवं परोक्ष सहयोगियों के प्रति मैं आभार व्यक्त करती हूँ, जिन्होंने इस कार्य में अपना सहयोग प्रदान किया। भाई अमित ने इसका कम्प्यूटर कम्पोजिंग एवं आकृति आफसेट ने इसका मुद्रण कार्य किया एतदर्थ उन्हें भी साधुवाद।
मुझे विश्वास है, इस अनुवाद में अज्ञानतावश जो अशुद्धियाँ रह गई है, उन्हें सुधीजन संशोधित करेंगे।
आभार भाई अमित ने इया एतदर्थ उन्हें में अ
शाजापुर,
विचक्षण हर्षचरणरज मोक्षरत्ना श्री
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