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लता है तो उनके अधिकांश सिद्धान्त एक ही होते हैं। अन्तर केवल दो चार बातों का होता है। अब यदि हिन्दु मत को अलंकारयुक्त न मानकर जैन मत से उसकी तुलना करें तो बहुत से अन्तर मिलते हैं। समानता केवल थोड़ी सी ही बातों में है, सिवाय उन बातों के जो लौकिक व्यवहार से सम्बन्ध रखती हैं। यहाँ तक कि संस्कार भी जो एक से मालूम पड़ते हैं वास्तव में उद्देश्य की अपेक्षा भिन्न हैं यदि उन्हें ध्यानपूर्वक देखा जाय । जैनी जगत् को अनादि मानते हैं; हिन्दू ईश्वर-कृत । जैन मत में पूजा किसी अनादि निधन स्वयंसिद्ध परमात्मा की नहीं होती है वरन् उन महान् पुरुषों की होती है जिन्होंने अपनी उद्देश्य सिद्धि प्राप्त कर ली है और स्वयं परमात्मा बन गये हैं। हिन्दू मत में जगत्-स्वामी जगत्-जनक एक ईश्वर की पूजा होती है। पूजा का भाव भी हिन्दू मत में वही नहीं है जो जैन मत में है। जैन मत की पूजा आदर्श पूजा (idealatory) है। उसमें देवता को भोग लगाना आदि क्रियाएँ नहीं होती हैं, न देवता से कोई प्रार्थना की जाती है कि हमको अमुक वस्तु प्रदान करो। हिन्दू मत में देवता के प्रसन्न करने से अर्थसिद्धि मानी गई है। शास्त्रों के सम्बन्ध में तो जैन-धर्म और हिन्दू-धर्म में आकाश पाताल का अन्तर है। हिन्दुओं का एक भी शास्त्र जैनियों को मान्य नहीं है और न हिन्दू ही जैनियों के किसी शास्त्र को मानते हैं। लेख भी शास्त्रों के विभिन्न हैं। चारों वेद और अठारह पुराणों का जो हिन्दू मत में प्रचलित हैं कोई अंश भी जैन मत के शास्त्रों में सम्मिलित नहीं है, न जैन मत के पूज्य शास्त्रों का कोई अंग स्पष्ट अथवा प्रकट रीति से हिन्दू शास्त्रों में पाया जाता है। जिन क्रियाओं में हिन्दू और जैनियों की समानता पाई जाती है वह केवल सामाजिक क्रिया है। उनका भाव
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