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उल्लेख है ( १३६)। यदि किसी मनुष्य ने कौटुम्बिक स्थावर सम्पत्ति को जो पिता के समय में जाती रही हो पुन: प्राप्त कर लिया हो तो उसको अपने साधारण भाग से अधिक चतुर्थ भाग और मिलना चाहिए (१३७ )। परन्तु ऐसी दशा में वह समस्त जङ्गम सम्पत्ति का स्वामी होगा ( १३८)। किसी भागाधिकारी के गहने कपड़े और ऐसी ही दूसरी वस्तुएँ बाँटी नहीं जायें गी ( १३६)। भाग इस प्रकार से करना चाहिए कि किसी अधिकारी को असन्तोष न हो (१४० )। यदि कोई भाई संसार त्याग करके साधू हो जाय तो उसका भाग उसकी स्त्री को मिलेगा (१४१ )।
जब कोई मनुष्य संसार त्यागना चाहे तो उसे सबसे प्रथम तीर्थ कर देव की पूजा करनी उचित है। पुन: प्रतिष्ठित पुरुषों के सामने अपनी सर्व सम्पत्ति अपने पुत्र को दे देनी चाहिए। या वह अपनी सम्पत्ति के तीन बराबर भाग कर सकता है जिनमें से एक भाग धार्मिक कार्य तथा दानादिक के लिए दूसरा परिजनों के निर्वाह के लिए निश्चित करके तीसरा भाग सब पुत्रों में बराबर बराबर बाँट दे (१४२)। उसको यह भी उचित है कि अपने बड़े पुत्र को छोटे पुत्रों का संरक्षक नियुक्त कर दे ( १४३ )।
(१३६) भद . १६ । ( १३७ ) इन्द ० २०; यह नियम मिताक्षरा में भी पाया जाता है। (१३८ ) वर्ध० ३७-३८; अहं ० १३४-१३६ । (१३६) इन्द्र० २१ । (१४०)" ३६; अहं १४ । (१४१) अह ० ६०; भद ० ८४; वध ४८ । (१४२ ) त्रैव० अध्याय १२ श्लोक १३-१६॥ (५४३) " " १२ ” १६-१८ ।
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