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नोट-पोते की विधवा अपने श्वशुर के पिता के धन की वारिस नहीं है।
स्वभर्तृ द्रव्य श्वशुरश्वश्रूभ्यां स्वकरे यदा । स्थापितं चेन्न शक्ताप्तु पतिदत्तेऽधिकारिणी ॥ ११५ ॥
अर्थ -अपने पति का द्रव्य भी जो श्वशुर और श्वश्र को दे दिया गया हो उसे वह नहीं ले सकती; केवल पति से लब्ध द्रव्य की ही वह अधिकारिणी है ॥ ११५ ।।
नोट-अभिप्राय उस धन से है जो पति ने अपने माता-पिता को दे डाला है, क्योंकि यह वापस नहीं होता है।
प्राप्नुयाद्विधवा पुत्रं चेद्गृह्णीयात्तदाज्ञया ।। तद्वंशजञ्च स्वलघु सर्वलक्षणसंयुतम् ।। ११६ ।।
अर्थ-विधवा स्त्री यदि श्वश्रू की आज्ञा से कोई लड़का गोद ले तो अपने वंश के, अपने से छोटे, सर्वलक्षण-संयुक्त, ऐसे पुत्र को ले सकती है !! ११६ ।।
जिनोत्सवे प्रतिष्ठादौ सौहृदे धर्मकर्मणि ! कुटुम्बपालने शक्ता नान्यथा साऽधिकारिणी ।। ११७ ॥
अर्थ---जिनेन्द्र के उत्सव, प्रतिष्ठादि, जाति-सम्बन्धी, धर्म कर्मादि, कुटुम्ब-पालन आदि कार्यों में ( लड़के की ) विधवा व्यय कर सकती है। दूसरे प्रकार में अधिकार नहीं है ।। ११७ ॥
नोट-यहाँ सङ्कत ऐसी विधवा बहू की ओर है जिसको लड़का गोद लेने की आज्ञा उसकी सास ने दे दी है। प्राज्ञा का परिणाम यह है कि सम्पत्ति दादी की न रहकर पोते की हो जाती है। खर्च के बारे में जो हिदायत कानून के इस श्लोक में है उसका सम्बन्ध ऐसे समय से है जब कि विधवा बहू अपने दत्तक पुत्र की ज़ात व जायदाद की वलिया (संरक्षिका ) उसकी नाबालिगो में हो।
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