Book Title: Jain Law
Author(s): Champat Rai Jain
Publisher: Digambar Jain Parishad

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Page 141
________________ एदसि बि सुदा अवि दुहिरा जो सब गुण सुद्धोय । होइहु भाय सु जुग्गा णियधम्मरदा जणाहु सब्बेसि ॥ ४४ ।। अर्थ-यदि यह ( अयोग्य व्यक्ति ) अच्छे न हो सके तो उनके दोहिते को जो सर्वगुणशुद्ध हो (करीबी दायादों के अभाव में ) उनका हिस्सा मिलेगा। यह समझ लेना चाहिए कि इन सबको धर्म में संलग्न रहना चाहिए ॥ ४४ ॥ जहकालं जहखेतं जहाबिहिं तेसिं समभाऊ । बिबरीया णिव्वस्सा पडिउलाये तहेव वाढव्वा ।। ४५ ।। अर्थ-धन का भाग यथाकाल, यथाक्षेत्र, नियमानुकूल समभाग में कर देना चाहिए। जो सर्वथा सद्व्यवहार के प्रतिकूल चले वह भाग का अधिकारी न होगा, (और ) जो माता-पिता के विरोधी हैं वह भी दाय के हक़दार न होंगे ॥ ४५ ॥ पुब्बबहू तहा सुद कमसो भायस्स भाइयो होई। इत्थिय धणं खु दिण्णं पाणिगहणस्स कालये सब्बं ॥ ४६॥ अर्थ-पूर्व स्त्री, फिर पुत्र, यह क्रमश: दाय के भागी होंगे। जो विवाह के समय मिले वह सब स्त्रीधन है ॥ ४६ ॥ माया पिया भयिण्णा पिञ्चसुसायेहिं संदिण्णं । भूसण वत्थ हयादिय सब्बं खलु जाण इत्थिधणं ।। ४७ ।। अर्थ--माता, पिता, भ्राता, बुआ ( पिता की भगिनी) आदि ने जो आभूषण, वस्त्र घोड़े आदि दिये हो सो सब (स्त्रीधन) है ॥ ४७ ।। - तम्हि धणम्हिय भाउ णहि एयस्सावि दायस्स । . सप्पयाइ णिप्पयाइंहिं हवे विसेसोय मादुये समयं ॥४८॥ अर्थ- उस (स्त्रीधन ) में किसी दायाद का कुछ अधिकार नहीं। स्त्री सप्रजा (पुत्रवती) अप्रजा ( अपुत्रवती) दो भेदवाली होती है॥४८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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